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जब हर व्यक्ति की संरक्षण इतनी आवश्यक हैं तो जो हमें जीवनदान देती है, प्रकृति जिसे कहते है उसका संरक्षण कितना आवश्यक होगा।
वृक्षदं पुत्रवत् वृक्षास्तारयन्ति परत्र च
अर्थ – फलों और फूलों वाले वृक्ष मनुष्यों को तृप्त करते हैं । वृक्ष देने वाले अर्थात् समाजहित में वृक्षरोपण करने वाले व्यक्ति का परलोक में तारण भी वृक्ष करते हैं ।
विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस प्रत्येक वर्ष 28 जुलाई को मनाया जाता है। आज विश्व में कई प्रजाति, जीव जंतु एवं वनस्पति विलुप्त हो रहे हैं। विलुप्त होते जीव जंतु और वनस्पति की रक्षा का विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस पर सुरक्षा करना ही इसका उद्देश्य है।
मानव और प्रकृति एक दूसरे के पूरक हैं मानव प्रकृति के साथ जैसा व्यवहार करता हैं, प्रकृति भी मानव के साथ वैसा ही व्यवहार करतीं हैं। आज मानव अपनी संरक्षण का इतना ख्याल रखता हैं कि प्रकृति का भी नुकसान करदेता हैं, अपने सुख सुविधाओं के लिए कितने पेड़ो को बलि चढ़ा दिया जाता हैं मालूम भी नहीं हैं। हर नागरिक को प्रकृति के प्रति सावधानी बरतनी चाहिए और संकल्प लेना चाहिए कि कभी भी मानव द्वारा प्रकृति का हास नहीं होगा।
एक तरफ विश्व महामारी से घिरा हुआ हैं दूसरी तरफ प्रकृति मानव की गलतियों को सुधार रही हैं। आज बादल इतने साफ हैं कि हिमालय की चोटियां बिहार से दिखने लगी हैं, वातावरण में शुद्धता आ रहीं हैं, सुबह सुबह अब चिडियों की चहचहाहट सुनने को मिलती है मानो प्रकृति अपने अंदर स्वयं बदलाव कर रहा हैं। इंसानों की वजह से न तो नीला आसमान बचा था और न ही पक्षियों का मधुर स्वर। ये सब वायु एवं ध्वनि प्रदूषण में कहीं खो कर रह गए थे।
अथर्व वेद में कहा गया है कि हे धरती मां, जो कुछ भी तुमसे लूंगा वह उतना ही होगा जितना तू पुन: पैदा कर सके। तेरे मर्मस्थल पर या तेरी जीवन शक्ति पर कभी आघात नहीं करूंगा। मनुष्य जब तक प्रकृति के साथ किए गए इस वादे पर कायम रहा सुखी और संपन्न रहा, लेकिन जैसे ही इस वादे को मानव भूल गए तभी प्रकृति ने अपना विकराल रूप उभर कर सामने ले आया।
1) 1972 में स्टॉकहोम में हुई प्रथम पर्यावरण-कॉन्फ्रेंस ने दुनिया को सन्तुलन की आवश्यकता का सन्देश दिया था। ऋषिकेश के शिवानन्द आश्रम के अध्यक्ष स्वामी श्री चिदान्दजी ने गढ़वाल के दूरवर्ती गाँवों में इस सन्देश का महत्व लोगों को समझाया था। यह सन्यासी केवल जप-तप-ध्यान इनकी चर्चा करने वाले शुष्क अध्यात्म का प्रचार करने देश-विदेश में नहीं घूमा करते थे। खुली आँखों से उन्होंने प्रदूषित विदेशों की भीषण संकट-अवस्था देखी थी। इस सनातन देश का जीवन-परिवर्तनकारी अध्यात्म व्यावहारिक दुनिया के समग्र सन्तुलन पर ही टिक पाएगा यह उन्हें मालूम था
2) जब भी पर्यावरण संरक्षण की बात आती हैं, तो उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में 80 के दशक में चले “चिपको आंदोलन” का जिक्र होना स्वाभाविक हैं। वन संरक्षण के इस अनूठे आंदोलन के विश्व भर में चर्चा हुई बल्कि इसके बाद पर्यावरण के प्रति एक नई जागरूकता भी फैली।
3) वर्षा जल संरक्षण अभियान, जिस राजस्थान के गांव भांवता कोल्याला की पहचान अकाल ग्रस्ट्टा इलाके व पानी की कमी वाले क्षेत्र के रूप में होती थी आज वह हरे-भरे क्षेत्र में तबदील हो गया है। इसका श्रेय स्वयंसेवी संगठन तरुण भारत संघ तथा स्थानीय लोगों के सामुदायिक प्रयासों को जाता है। इस इलाके में पहले अरवरी नदी सुखी पड़ी रहती थीं और बारिश बहुत कम होती थी। चुँकि पानी के अभाव में खेती संभव नहीं थी इसलिए लोग रोजगार की तलाश में देश के अन्य भागों में चले जाते थे।
साहित्य में पर्यावरण और प्रकृति पर कई लेखकों ने लिखा हैं जयशंकर प्रसाद, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, नागार्जुन, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि। सुबह की किरण हो या शाम का अस्त सूरज, बारिश हो या तपती धूप, फूल हो या पत्थर, नदी हो या बगीचे सब पर कविताएं, कहानियां, लेख सब लिखा हैं। ऐसे लेखकों कि आवश्यकता आज भी हमारे समाज को है जो लोगो को अपनी लेख,कविता,कहानियों के जरिए लोगो के अंदर जागरूकता पैदा कर सकें।
अब भी वक़्त हैं हर व्यक्ति को पर्यावरण के प्रति सचेत होने का और इसके लिए कई जागरूकता अभियान भी चलाए जा रहे हैं, अब हर व्यक्ति को इसकी कमान स्वयं के हाथों में लेनी होगी और एक एक कदम पर जहां भी जो भी प्रकृति का नुकसान कर रहा हैं उसे राेके, शुरुआत खुद से करे अपने घर से करें, पानी संरक्षण करे, पेड़ लगाए, गाड़ी का उपयोग हो सके तो कम करे, मौसम को महसूस करें।
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