एक दुखद खबर सबकी चर्चा का विषय बनी हुई है कि अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने अवसाद (डिप्रेशन) की वजह से आत्महत्या कर अपने जीवन को समाप्त कर लिया है । इस खबर से उनके चाहने वाले दुखी हैं और इस खबर की चर्चा सब ओर हो रही है । परंतु एक और चर्चा जो सब ओर हो रही है वह है अवसाद (डिप्रेशन) की।
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अवसाद एक मनोविकार है । इस विकार में मनुष्यों के भीतर नकारात्मक भावों की प्रधानता होने लगती है। इस विकार के कारण मनुष्य स्वयं को अकेला महसूस करने लगता है उसे ज्यादातर चीजें, घटनाएं और बातें अपने विपरीत जाती हुई ही प्रतीत होती है । अभिनेता सुशांत की आत्महत्या के लिए अवसाद (डिप्रेशन) को कारण माना जा रहा है। और इसी बात से अवसाद से निपटने और इससे जूझते लोगों को इससे बाहर निकालने की बहस ने जोर पकड़ लिया है।
अलग-अलग प्रतिक्रिया मैंने कल से ही अलग अलग लोगों की अलग अलग माध्यमों में देखी । कुछ का कहना है कि इसके लिए अलग से सरकार को बजट निकलना चाहिए और अवसाद से जूझते लोगों की मनोरोग विशेषज्ञों से परामर्श (Counseling) की व्यवस्था करानी चाहिए ।
इसके अलावा भी मैंने कई लोगों की नकारात्मक या निराशा जनक प्रतिक्रियाएं पढ़ीं और सुनी । कुछ कह रहे हैं कि अंदर से सब अकेले हैं , किसी ने कहा किसी का कोई नहीं और इसके अलावा भी बहुत कुछ । वैसे यह बात सच है कि किसी का कोई नहीं और होगा भी नहीं अगर संसार के परिपेक्ष्य में कहें तो क्योंकि संसार से ऊपर एक शक्ति है जो है ईश्वर और मनुष्य का वास्तव में उसके सिवा कोई नहीं ।
हर बार की ही तरह इस बार भी उपाय हमारे ही धर्म दर्शन में हमारे ही शास्त्रों में हैं लेकिन वहाँ देखने तक का भी समय किसी के पास नहीं सारा विश्व घूम आएंगे लेकिन स्वयं के महिर्षियों की शरण में नहीं आएंगे इसका कारण यह है कि हमें आदत पड़ गई है बाहर देखने की दूसरों को श्रेष्ठ समझने की और इसके अलावा आलस्य की भी ।
अवसाद में अकेलापन महसूस होता है और यदि किसी को अवसाद ना हो तो भी वह दूसरों में अपनी खुशियाँ खोजते हैं । दूसरों के साथ भी खुश रहना चाहिए लेकिन अपने भीतर की खुशी को भी खोजना चाहिए । और उस खुशी को पाने के लिए हमें शास्त्रों की शरण लेनी पड़ेगी । लेकिन अब यह सवाल कि शास्त्र तो हमारे यहां बहुत सारे हैं किसकी शरण लें ।
तो यहां मैं कहना चाहूंगा कि सब कुछ नहीं पढ़ सकते तो श्रीमद्भगवत गीता को ही पढ़ लें और केवल पढ़ना नहीं उस पर चिंतन करना चाहिए और उसे जीवन में अपनाना चाहिए । अब दूसरी बात जो मैं देखता हूँ वो हैं आगे के बहाने जैसे- कोई कहता है कि समय नहीं होता ,कोई कहता है समझ नहीं आती कोई कहता है बोरिंग लगती है ।
तो इसका जवाब मैं यही दूंगा की सब चीजों के लिए समय है तो इनके लिए भी दिन में 10 से 20 मिनट निकाल लो और नहीं निकाल सकते तो आपको कोई अन्य मार्ग पता होगा परन्तु मुझे यही पता है और मैं यही सलाह दूँगा । फिर से मैं यही कहूँगा सभी प्रश्नों के उत्तर शास्त्रों में हैं और विशेषकर श्रीमद्भगवत गीता में बस उस पर चिंतन – मनन करना चाहिए । उत्तर तो सभी प्रश्नों के हैं पर क्योंकि हमारा आज का विषय अवसाद है तो उस पर शास्त्रों का ऊपरी अवलोकन करते हैं ।
ईशावास्योपनिषद् में एक मंत्र है जिसे मैं सूत्र मानता हूँ और वह है-
“ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
अर्थ:- परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उसी पूर्ण से ही उत्पन्न हुआ है।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||”
अर्थ:- उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है।
इस मंत्र का जप रोज सुबह योग क्रियाएं करने से पहले भी करते हैं इसका अर्थ ये है कि परमात्मा पूर्ण है और क्योंकि हम उस परमात्मा के ही अंश हैं तो हम भी पूर्ण हैं । और जब हम पूर्ण हैं तो हमें अपनी खुशी के लिए दूसरों पर आश्रित रहने की आवश्यता ही क्या है ।
यह बात भी सही है कि पढ़ना और सुनना तो आसान है लेकिन अमल में लाना अलग बात है । यह ऋषियों ने तो अपने लिए सिद्ध कर लिया ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ मैं ही ब्रह्म हूँ परंतु जब हम यह सिद्ध करने जाते हैं तो हमसे यह नहीं हो पाता क्योंकि जब हम ध्यान लगाने बैठते हैं तो कई वर्ष अगर हम नियम से भी रोज एक समय निश्चित करके ध्यान लगाने बैठें तो ध्यान का उद्देश्य यानी आत्म साक्षात्कार या भगवत दर्शन नहीं होते तो फिर हम ध्यान लगाने बैठें ही क्यों ।
इसका जवाब यह है कि ईश्वर प्राप्ति तो अंतिम लक्ष्य है उसके बाद तो कुछ है ही नहीं परंतु ईश्वर दर्शन या आत्म साक्षात्कार ना होने पर भी नियम पूर्वक ध्यान में बैठने लगें तो आपकी आत्मा शांत होना शुरू कर देगी , इन्द्रियों का प्रकोप शांत होने लगेगा ,स्मरण शक्ति बढ़ने लगेगी , सामाजिक ताप आपको विचलित नहीं करेंगे और अन्य भी बहुत से फायदे हैं जो आप स्वयं अनुभव करेंगे ।इन सब में अवसाद जैसी बीमारियों के लिए तो कोई जगह ही नहीं है ।
हमारे शास्त्र आपको जीवन के समाप्त होने के बाद का मार्ग आदि तो बताते ही हैं परंतु इसी जन्म में आप परम् शांति कैसे प्राप्त कर सकते उसका मार्ग भी बताते हैं उसके लिए आपको मरने की आवश्यकता नहीं केवल शाश्त्रों की आज्ञा का पालन करना होता है और इसी जन्म में आप खुद परख सकते हैं कि शास्त्रों में लिखा सच है या नहीं इसलिए यहाँ आंख बंद करके भरोसा करने वाली व्यवस्था नहीं है यहां अनुभव करके विश्वास दृढ़ होता है।
आदि शंकराचार्य जी अपने द्वारा रचित निर्वाणषटकम् में कहते हैं कि ‘चिदानन्द रूपः शिवोहम् शिवोहम्’ यानी कि मैं शुद्ध चेतना हूँ मैं शिव स्वरूप हूँ । जब हम शिवस्वरूप हैं तो अवसाद(Depression) क्या है कुछ भी नहीं । इसलिए कोई मुश्किल सामने आए तो बाहर नहीं भीतर हल खोजिए हल भीतर ही मिलेगा भीतर यानी अपने अंदर और अपने शास्त्रों के अंदर ।
बाहर वो झांकते हैं जिनके पास अपना कुछ नहीं होता बाहर से वो मांगते हैं जिनके पास अपना कुछ नहीं होता हमारे लोग क्यों बाहर जाते हैं जबकि हमारे पास तो इतना है कि हम समेट भी नहीं पाते । इसलिए ध्यान के लिए समय निकलिए आस्तिक बनिए ईश्वर को सर्व शक्तिमान जानिए और आने वाले दुखों को अपने द्वारा निर्मित समझ कर अपने द्वारा ही उसका समाधान खोजिए।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।
हे कुन्तीनन्दन इन्द्रियोंके जो विषय (जड पदार्थ) हैं वे तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता) के द्वारा सुख और दुःख देनेवाले हैं। वे आनेजानेवाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन उनको तुम सहन करो।
श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 5 श्लोख 21 –
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥
बाहर के विषयों में आसक्तिरहित अन्तःकरण(अंदर देखने वाला) वाला साधक आत्मा में स्थित जो ध्यानजनित(ध्यान करने से प्राप्त) सात्विक आनंद है, उसको प्राप्त होता है, तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिन्न भाव से स्थित पुरुष अक्षय आनन्द का अनुभव करता है॥( यानी जो बाहर की चीजों पर मोहित नहीं होता और भीतर देखता है और आत्मा में स्थित होता है ध्यान(meditation) करने से सच्चे आनन्द को प्राप्त करता है)।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।
अर्थ:- जो सबमें मुझको देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।
अर्थ:- मैं सम्पूर्ण प्राणियों में समान हूँ। उन प्राणियों में न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं वे मुझ में हैं और मैं उनमें हूँ ।
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।
अर्थ:- वे परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियोंके बाहरभीतर परिपूर्ण हैं और चरअचर प्राणियोंके रूपमें भी वे ही हैं एवं दूरसेदूर तथा नजदीकसेनजदीक भी वे ही हैं। वे अत्यन्त सूक्ष्म रूप में रहते हैं इसलिए सामान्य लोग उन्हें देख नहीं पाते।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।
अर्थ:- हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।
यह आश्वासन स्वयं भगवान दे रहे हैं इसलिए अपने अंदर खोजिए सभी उत्तर वहीं मिलेंगे।
जय श्री हरी।
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