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पितृ दिवस क्यों मनाया जाता है?जब किसी बच्चे का जन्म होता है माता पिता को समान खुशी प्राप्त होती है, माता पिता समान रूप से उस बच्चे की परवरिश करते हैं परंतु उनके स्नेह का माध्यम अलग अलग होता है। पितृ दिवस पश्चिमी सभ्यता से हमारे देश में आया है, पश्चिमी सभ्यता के दौरान पितृ दिवस जून के तीसरे रविवार को बनाया जाता है। भारतीय संस्कृति सबसे पुरानी और उच्चतम है,यहां हर पर्व के मायने अभिन्न और अद्भुत होते हैं।
पितृ दिवस पश्चिमी सभ्यता से निकला है, परंतु भारत के संस्कारों और सभ्यताओं ने पितृ दिवस का महत्व ही बदल दिया है। भारत प्राचीन सभ्यताओं से भरा हुआ देश है, जिस संस्कृति में दशरथ- राम,वृषभान- राधा, भीम- घटोत्कच, श्रवण कुमार,अर्जुन जैसे पिता और संतान हो वहां पितृ दिवस के मायने भी अद्भुत होंगे। भारत में पिता अर्थात भगवान, माता-पिता को भारत में भगवान से भी ऊंचा दर्जा दिया गया है।वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में पिता की सेवा करने वह उसकी आज्ञा का पालन करने के महत्व का उल्लेख करते हुए कहा गया है:
न तो धर्म चरणं किंचिदस्ति महत्तरम्।
यथा पितरि शुश्रुषा तस्य वा वचनक्रिपा।।
अर्थात, पिता की सेवा अथवा, उनकी आज्ञा का पालन करने से बढ़कर कोई धर्माचरण नहीं है।आज की स्थिति विष्णु पुराण, रामायण, महाभारत जैसी नहीं काफी हद तक बदल चुकी है,लोग पुराने मान्यताओं को छोड़कर पश्चिमी सभ्यताओं की ओर बढ़ रहे हैं, आज पितृ दिवस का अर्थ है पितृ दिवस के दिन पिता के साथ फोटो शेयर करना, कहीं बाहर घूमने जाना, परंतु उस पिता के साथ बैठकर बातें करने का समय उनके संतान के पास नहीं है, यह एक दयनीय एवं भयावह स्थिति है।
साहित्य की दुनिया में भी ऐसे कई उदाहरणों में कहानी लिखी गई है, जैसे- उषा प्रियंवदा की ‘वापसी’ निर्गुण की ‘एक शिल्पहीन कहानी’ आदि कई उदाहरण कविता,कहानी,लेख के माध्यम से लिखे जा रहे हैं। लोगों के अंदर जागरूकता लाने का प्रयास किया जा रहा है, जो व्यक्ति अपने पिता की देखरेख नहीं कर सकता पितृ दिवस क्यों मनाते हैं?लोगों को पितृ दिवस मनाने का ढोंग नहीं रखना चाहिए। एक दिन के प्यार से क्या साल भर का दुख भर जाता है?
हमारे आज की पीढ़ी को हमारे ग्रंथों को पढ़ना चाहिए,उनसे ज्ञान अर्जित करना चाहिए, किस प्रकार दशरथ के वचन के खातिर राम जी 14 वर्ष का वनवास काट कर आए, किस प्रकार वासुदेव ने अपने पुत्र के रक्षा के लिए उन्हें टोकरी में रख नदी पार कर पिता और मातृ मोह से दूर कर दिया, किस प्रकार श्रवण कुमार अपनी मृत्यु के क्षण में भी अपने माता-पिता के लिए व्याकुल था, ग्रंथो में हमें आदि कई उदाहरण प्राप्त हो जाएंगे। आज के समय में पिता अपना धर्म निभा रहा है अब बारी संतान की हैं।
आज की आने वाली पीढ़ी पिछली पीढ़ी की ममता की पीड़ा नहीं समझ पाती है, पिछली पीढ़ी अपनी संतान के संभावित संकट की कल्पना मात्र उद्विग्न हो जाते हैं। माता-पिता के मन में यह प्रतीति ही नहीं होती कि अब संतान समर्थ है,बड़े से बड़े संकट का सामना स्वयं का लेगा।आधुनिक युवा पीढ़ी को इस पितृ दिवस यह प्रतिज्ञा लेनी चाहिए अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के अनुरूप वे अपने माता पिता के प्रति सभी दायित्वों का पालन करेंगे पर हमेशा याद रखेंगे की :
पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः।
पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः॥
पितरौ यस्य तृप्यन्ति सेवया च गुणेन च।
तस्य भागीरथीस्नानमहन्यहनि वर्तते॥
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता।
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्॥
मातरं पितरंश्चैव यस्तु कुर्यात् प्रदक्षिणम्।
प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तदीपा वसुन्धरा॥
पद्मपुराण में कहा गया है कि पिता धर्म है, पिता स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तप है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो जाते हैं। जिसकी सेवा और सदगुणों से पिता-माता संतुष्ट रहते हैं, उस पुत्र को प्रतिदिन गंगा-स्नान का पुण्य मिलता है। माता सर्वतीर्थमयी है और पिता सम्पूर्ण देवताओं का स्वरूप है। इसलिये सब प्रकार से माता-पिता का पूजन करना चाहिये। माता-पिता की परिक्रमा करने से पृथ्वी की परिक्रमा हो जाती है।
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