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माओ-शी से नेहरु और मोदी तक (1911 -2020)

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माओ-शी से नेहरु और मोदी तक चीन और भारत के रिश्तो में आये इन बदलावों को आज हम एक नए रूप में जानने का प्रयास करते हैं, मैं विदेश नीति के आज के हिस्से में आपको माओ से शी-जिनपिंग और भारत में नेहरु से मोदी तक के दौर को एक नए रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा.

सम्राट पुई

भूमिका

हम सब ये भली बहती जानते हैं की चीन के सम्राट पुई(1908-1912) अंतिम सम्राट थे जो 1912 मैं शुरू देश विरोधी आंदोलन मैं अपनी कुर्सी से हाथ धो बैठे , ये चीन के शुरुआती गणतांत्रिक दिन थे जिनकी नीव सन-यात-सेन(1866-1925) के विचारो और किंग राजवंश के नीतिओ की खामी ने रखी थी जल्द ही चीन में एक नयी सरकार का गठन हुआ ये सरकार कहने को तो लोकतान्त्रिक मूल्यों की हिमायती थी लकिन देश में व्याप्त असंतोस और बहरी आन्तरिक समस्याओ में जकड़ी हुई देश में चुनाव के पक्ष में न थी, जल्द ही इसकी पकड़ चांग-काई-शेक(1887-1975) के हाथो में आ गयी जिन्होंने मेनलैंड चाइना पर(1928-1949) और फिर 1975 तक ताइवान पर शासन किया, लकिन चांग का राजनेतिक जीवन कभी भी निष्कंटक नही रहा एक तरफ उन्हें जापानी आक्रमण(1937-1945) तो दूसरी और देश के अन्दर ही कम्युनिस्ट पार्टी के विरोधो का सामना करना था फलत 1949 में उनकी कम्युनिस्ट प्रायोजित लॉन्ग मार्च में हार हुई, इसके साथ ही माओ-ज़िदोंग(1893-1976) चीनी राजनीती के चरम को प्राप्त करने का सपना पूरा करते हैं.

झ़ोउ-एनलाई और माओ

माओ का चीन

वारेन सुन और फ्रेडरिक तेइविस ने अपने चीन के राजनेतिक इतिहास में इस बात पर जोर दिया है की, ज्होऊ के अंतिम संस्कार में शामिल होने से लोगो का गुस्सा अंत में माओ पर आता जो की माओ के लिए सही नही था

माओ बहोत ज्यादा शिक्षित नही थे वो एक किसान परिवार से सम्बन्ध रखते थे और बचपन में ही शादी और जिम्मेदारियो से भागते आ रहे थे, कम्युनिस्ट पार्टी ने उन्हें सहारा दिया, दूसरा जापानी हमले की निंदा करने के कारण और सोवियत गुट ने निकट होने के कारण उन्हें जल्द ही वैश्विक समर्थन मिल गया, जिसने उनकी कुर्सी के पायो को और मजबूत कर दिया, लकिन दूसरी और शीत युद्ध(1945-1991) शुरू हो गया और माओ अपनी निष्ठा और पूंजीवाद के ऊपर टिकी हुई कुर्सी के लिए पश्चिम विरोधी हो गये, अपने इस सनकपन में माओ ने जो नीतियाँ लागु करने का प्रयास किया वो ज्यादातर असफल रही, फलत आतंरिक विकास के साथ साथ चीन गरीबी से उबर पाने में असफल रहा लकिन यहाँ जिस बात पर मैं आप सब का ध्यान खींचना कहता हूँ वो ये की माओ की सनकपन से चीन को बचने के लिए झ़ोउ-एनलाई(1898-1976) जैसे नेता भी थे जिन्होंने माओ की पागलपन भरी नीतिओ के प्रवाह को कम किया

यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है की ज्होऊ खुद भी चीन में प्रमुख का पद ग्रहण कर सकते थे पार्टी उनके समर्थन में क्रांति के शुरुआती दौर में झुकी हुई थी, लकिन उन्होंने खुद ही कुर्सी का त्याग कर दिया, ज्होऊ जहाँ चीनी संस्कृति को बढ़ावा देते थे तो माओ उसने समूल विनाश पे आतुर थे, 1972 में ज्होऊ के ब्लैडर कैंसर का पता लगा लकिन ये बात माओ ने उनतक पहुचने नही दी और जब उनका कैंसर हद पार गया तो उनका इलाज किया गया फलत ज्होऊ जैसे नेता से चीन को हाथ धोना पड़ा, माओ ने ज्होऊ के अंतिम संस्कार पर जाना स्वीकार नही किया और अन्य नेताओ और पदाधिकारियो से भी इसका पालन करवाया ताकि ज्होऊ की योगदान को भुलाया जा सके वारेन सुन और फ्रेडरिक तेइविस ने अपने चीन के राजनेतिक इतिहास में इस बात पर जोर दिया है की, ज्होऊ के अंतिम संस्कार में शामिल होने से लोगो का गुस्सा अंत में माओ पर आता जो की माओ के लिए सही नही था, खैर ज्होऊ  को चीनी इतिहास में एक लोकप्रिय और न्याप्रिय नेता के रूप में जाना जाता रहा है ज्होऊ की मृत्यु 1976 में सांस्कृतिक क्रांति की एक असफल कोशिश तिअनन्मेन की घटना का रूप लिया, जल्द ही अत्यधिक धुम्रपान और अस्वस्थ दिनचर्या के कारण 1976 में माओ हार्ट अटैक से मर गये.

देंग शियाओ पिंग

देंग शियाओ पिंग का दौर

इसके साथ ही चीन में दसको से चली आ रही मओवादियो की सनकपन का भी अंत निकट आ गया, देंग-शियाओ (1904-1997)का उदय होता है देंग ज्होऊ के करीबी थे और माओ की नीतिओ से संतुष्ट न थे जब उन्होंने ज्होऊ के कार्यो पर चीनी राज्य शोक सभा में अपना संबोधन दिया तो उनका भरी सभा में विरोध होने लगा और माओ गुट से हुओ-गुओफेंग को माओ का उतराधिकारी चुना गया लकिन देश में माओ की नीतिओ से असंतुष्ट लोगो का भारी समर्थन देख कम्युनिस्ट पार्टी को अपना फैसला बदलना पड़ा और 1977-1988 तक सत्ता देंग के हाथो में आ गयी वास्तव में आज चीन जो भी है उसके पीछे इन्ही सालो का योगदान है देंग की चाहे पश्चिम की निति हो या उदारीकरण और निजीकरण की यही वो नीतियाँ थी जिसने चीन को माओ की सनकवादी सोच से मुक्त किया, इनमे सबसे प्रमुख था विशेष आर्थिक गलियारा योजना यही वो योजना है जो चीन के विकास की नीव है.

शी-जिनपिंग

वर्तमान और शी

चीन आज उसी माओवादी सनकपन की कीमत चूका रहा है शी-जिनपिंग(1953) उसी धारा से आते हैं जिससे माओ आते थे, विस्तारवादी साम्राज्यवादी लकिन वर्तमान में चीन में एक बार इर से एक सनकी का आजीवन शासन लागु हो गया है और लकिन चीन देंग के लिए सुधारो से भी बच नही सकता जो उन्हें पूंजीवादी भी बना चुके है, यहाँ समझने वाली बात है जिनपिंग भले ही माक्सवाद और कानून के ज्ञाता हैं लकिन उनका भी हाल माओ सा है लकिन न तो यहाँ कोई ज्होऊ है न देंग जो चीन को उनकी इस सनकपन से बचा सके.

भारत और ब्रिटेन के नेता

भारत और चीन में समानता

दूसरी और भारत है, हमे विरासत में नेहरु(1889-1964) को सहन करना था भारत को भी ज्होऊ की तरह सरदार पटेल(1875-1950) जैसा हीरा मिला जिसने राजनेतिक कुर्सी का लालच नही किया, लकिन भारत उतना भाग्यशाली नही रहा जितना चीन था सरदार को जल्दी ही जाना पड़ा और भारत में नेहरु की सनकपन को कोई अंकुश लगा सके ऐसा था नही, फलत एक पे एक गलत फैसले है जैसे की कश्मीर, गुटनिरपेक्षता, पंचशील, यु.अन.ओ की सुरक्षा परिषद् की सीट का त्याग और भारत को उसी का खामियाजा आज भुगतना पड़ रहा है,और चीन भारत युद्ध 1962 तो भुला ही नही जा सकता, हमे देंग क्षिओअपिन्ग के रूप में शास्त्री जी(1904-1966) मिले लकिन उनका भी निधन देश के लिए घातक सिद्ध हुआ, फिर मिली हमे वंशवादी राजनीती और अंत में कुछ कम समयावधि तक कार्य कर सकने में कुशल किन्तु राजनेतिक समर्थन के अभाव से जूझती सरकारे.

मोदी

चिंतन

वर्तमान में हमारे पास मोदी सरकार है मोदी देश के लिए शी साबित होंगे या ज्होऊ या देंग या कोई और ये वक़्त पर रहने देते हैं वैसे व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व होता है अंत में हमें ये प्रश्न समय पर ही छोड़ देना चाहिये, मिलते हैं राज-नीति की अगली कड़ी में.

सन्दर्भ ग्रन्थ

  1. Warren Sun and Frederick C Teiwes, Paradoxes of post Mao Rurel Reform, 2016
  2. William l Tung, The political Institutions of Modern China, 1968
  3. Ben Bruce, Henry Pu-Yi Life magazine, 1945
  4. Tom Phillips, Dictator for Life, 2018
  5. Fenby Jonathan, Chaing-Kai-Shek China’s generalissimo and the nation he lost, 2005
  6. Gregor Benton, Assessing Deng-Xiaoping
  7. Himanshi-roy, Patel political Ideas and policies, 2018
  8. Bipan Chandra, India after independence,2000
  9. Lance Price, The Modi effect, 2015

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Nikesh Singh

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