पूरे संसार में इंसान ही ऐसा प्राणी जो रचनात्मकता को हवा देता आया है. उसने जब समय के साथ रचनात्मकता को हवा देना शुरू करा, तब सगींत, चित्रकला, नृत्य जैसे तमाम कलाओं की विधा, इंसान के विकास के साथ ही अपने विकास के सफर को तैय करना शुरू कर दिया. दुनिया में जितनी भी सभय्ता या संस्कृति वजूद में आई है , ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि वो इन विधाओं से मेहरूम रही हो.
भारतीय संस्कृति में गीत और नृत्य विधा को चोली दामन के साथ जैसा बताया गया है. प्राचीन भारत के समय से ही नृत्य को तवज्जो देती आ रही है. इस विशाल काये सरज़मीं पर नृत्य ने जन्म लिया है.भारत में नृत्य का जन्म दैविक माना गया है. नटराज यानि शिव को 108 तरह के नृत्य का सर्जन माना जाता है. शिव का प्रमुख नृत्य तांडव माना जाता है. भारत में प्राचीन समय से ही नृत्य मौजूद ह जिसका उद्धरण प्राचीन ऋग्वेद में मिलता है.
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अंग-प्रत्यंग एवं मनोभावों के साथ की गई नियंत्रित यति-गति को नृत्य कहा जाता है।
भरतनाट्यम एक महज़ नृत्य नहीं है यह जीवन का सार है. यह एक ऐसी परंपरा है, जिसमें पूर्ण समर्पण, सांसारिक बंधनों से विरक्ति तथा निष्पादनकर्ता का इसमें चरमोत्कर्ष पर होना आवश्यक है. भरतनट्यम भारत के प्रसिद्ध नृत्यों में से एक है जिसका संबंध दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य से है. इसे पहले सादिर, दासी अट्टम और तन्जावूरनाट्यम के नामों से जाना जाता था.
भरत नाट्यम में नृत्य के तीन मूलभूत तत्वों को कुशलतापूर्वक शामिल किया गया है. भाव अथवा मन:स्थिति, राग अथवा संगीत और स्वरमार्धुय और ताल अथवा काल समंजन. भरत नाट्यम में जीवन के तीन मूल तत्व – दर्शन शास्त्र, धर्म व विज्ञान मौजूद हैं. यह एक लगातार विकसित और सांसारिक नृत्य शैली है, तथा इसकी प्राचीनता स्वयं सिद्ध है.
कथकली का अर्थ है एक कथा का नाटक या एक नृत्य नाटिका. जो केरल के दक्षिण – पश्चिमी राज्य का एक समृद्ध और फलने फूलने वाला नृत्य कथकली यहां की परम्परा है. यहां अभिनेता रामायण और महाभारत के महाग्रंथों और पुराणों से लिए गए चरित्रों को अभिनय करते हैं। यह अत्यंत रंग बिरंगा नृत्य है. इसके नर्तक उभरे हुए परिधानों, फूलदार दुपट्टों, आभूषणों और मुकुट से सजे होते हैं.
वह तमाम भूमिकाओं को चित्रित करने के लिए सांकेतिक रूप से खास प्रकार का रूप अपनाते हैं, जो वैयक्तिक चरित्र के बजाए उस चरित्र के अधिक नजदीक होते हैं. इसमें तमाम विशेषताएं, मानव, देवता समान, दैत्य आदि को शानदार वेशभूषा और परिधानों के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता है. इस नृत्य का सबसे अधिक प्रभावशाली भाग यह है कि इसके चरित्र कभी बोलते नहीं हैं, केवल उनके हाथों के हाव भाव की उच्च विकसित भाषा तथा चेहरे की अभिव्यक्ति होती है जो इस नाटिका के पाठ्य को दर्शकों के सामने प्रदर्शित करती है.
उनके चेहरे के छोटे और बड़े हाव भाव, भंवों की गति, नेत्रों का संचलन, गालों, नाक और ठोड़ी की अभिव्यक्ति पर बारीकी से काम किया जाता है तथा एक कथकली अभिनेता – नर्तक द्वारा विभिन्न भावनाओं को प्रकट किया जाता है. इसमें जयादातर पुरुष ही महिलाओं की भूमिका निभाते हैं, जबकि अब कुछ समय से महिलाओं को कथकली में शामिल किया जाता है.
कथक में 100 से अधिक घुंघरुओं को पैरों में बांध कर तालबद्ध पदचाप, विहंगम चक्कर द्वारा पहचाना जाता है और हिन्दु धार्मिक कथाओं के अलावा पर्शियन और उर्दू कविता से ली गई विषयवस्तुओं का नाटकीय प्रस्तुतीकरण किया जाता है. कथक का जन्म उत्तर में हुआ किन्तु पर्शियन और मुस्लिम प्रभाव से यह मंदिर की रीति से दरबारी मनोरंजन तक पहुंच गया.
कथक शब्द का उद्भव कथा से हुआ है, जिससे मुराद है, कहानी कहना. कथा वाचक गानों के रूप में पुराने समय में इसे बोलते और अपनी कथा को एक नया रूप देने के लिए नृत्य करते थे. इससे कथा कलाक्षेपम और दक्षिण भारत में हरी कथा का रूप बना और यही उत्तर भारत में कथक के रूप में जाना जाता है.
लगभग 15वीं शताब्दी में इस नृत्य परम्परा में मुगल नृत्य और संगीत के कारण बड़ा परिवर्तन आया. वहीँ 16वीं शताब्दी के अंत तक कसे हुए चूड़ीदार पायजामे को कथक नृत्य की वेशभूषा मान लिया गया था. कथक की शैली का जन्म ब्राह्मण पुजारियों द्वारा हिन्दुओं की पारम्परिक पुन: गणना में निहित है, जिन्हें कथिक कहते थे, जो नाटकीय अंदाज में हाव भावों का उपयोग करते थे.
इसमें कथा कहने की शैली और अधिक विकसित हुई तथा एक नृत्य रूप बन गया. उत्तर भारत में मुगलों के आने पर इस नृत्य को शाही दरबार में ले जाया गया और इसका विकास ए परिष्कृत कलारूप में हुआ, जिसे मुगल शासकों का संरक्षण प्राप्त था और कथक ने वर्तमान स्वरूप लिया. इस नृत्य में अब धर्म की अपेक्षा सौंदर्य बोध पर अधिक बल दिया गया. इस नृत्य परम्परा के दो प्रमुख घराने हैं, इन दोनों को उत्तर भारत के शहरों के नाम पर नाम दिया गया है और इनमें से दोनों ही क्षेत्रीय राजाओं के संरक्षण में विस्तारित हुआ – लखनऊ घराना और जयपुर घराना।
मोहिनीअट्टम केरल की महिलाओं द्वारा किया जाने वाला अर्ध शास्त्रीय नृत्य है जो कथकली से भी अधिक पुराना माना जाता है. साहित्यिक रूप से नृत्य के बीच मुख्य माना जाने वाला जादुई मोहिनीअटट्म केरल के मंदिरों में खासतौर से किया जाता था.
यह देवदासी नृत्य विरासत का उत्तराधिकारी भी माना जाता है जैसे कि भरत नाट्यम, कुचीपुडी और ओडीसी. मोहिनी शब्द का अर्थ है एक ऐसी महिला जो देखने वालों का मन मोह लें या जो उनमें इच्छा पैदा करें. यह भगवान विष्णु की एक जानी मानी कहानी है कि जब उन्होंने दुग्ध सागर के मंथन के दौरान लोगों को आकर्षित करने के लिए मोहिनी का रूप धारण किया था और भामासुर के विनाश की कहानी इसके साथ जुड़ी हुई है. इसलिए यह सोचा गया कि वैष्णव भक्तों ने इस नृत्य रूप को मोहिनीअटट्म का नाम दिया है.
मोहिनीअटट्म का प्रथम संदर्भ माजामंगलम नारायण नब्बूदिरी द्वारा संकल्पित व्यवहार माला में पाया जाता है जो 16वीं शताब्दी ए डी में रचा गया। 19वीं शताब्दी में स्वाति तिरुनाल, पूर्व त्रावण कोर के राजा थे, जिन्होंने इस कला रूप को प्रोत्साहन और स्थिरीकरण देने के लिए काफी प्रयास किए. स्वाति के बाद के समय में ज्यादातर इस कला रूप में गिरावट आई, किसी प्रकार यह कुछ प्रांतीय जमींदारों और उच्च वर्गीय लोगों के भोगवादी जीवन की संतुष्टि के लिए कामवासना तक गिर गया.
कवि वालाठोल ने इसे एक बार फिर नया जीवन दिया और इसे केरल कला मंडलम के माध्यम से एक आधुनिक स्थान प्रदान किया, जिसकी स्थापना उन्होंने 1903 में की थी.
कलामंडलम कल्याणीमा, कलामंडलम की प्रथम नृत्य शिक्षिका थीं जो इस प्राचीन कला रूप को एक नया जीवन देने में सफल रहीं। उनके साथ कृष्णा पणीकर, माधवी अम्मा और चिन्नम्मू अम्मा ने इस लुप्त होती परम्परा की अंतिम कडियां जोड़ी जो कलामंडल के अनुशासन में पोषित अन्य आकांक्षी थीं. मूलभूत नृत्य ताल चार प्रकार के होते हैं: तगानम, जगानम, धगानम और सामीश्रम। ये नाम वैट्टारी नामक वर्गीकरण से उत्पन्न हुए हैं.
कुचीपुडी आंध्र प्रदेश की एक स्वदेशी नृत्य शैली है, जिसने इसी नाम के गांव में जन्म लिया और पनपी, इसका मूल नाम कुचेलापुरी या कुचेलापुरम था, जो कृष्णा जिले का एक कस्बा है. यह तीसरी शताब्दी में अपने धुंधले कल छोड़ आई है, जो इस क्षेत्र की एक निरंतर और जीवित नृत्य परम्परा है.कुचीपुडी कला का जन्म जयादातर भारतीय शास्त्रीय नृत्यों के समान धर्मों के साथ जुड़ा हुआ है.
एक लम्बे समय से यह कला केवल मंदिरों में और वह भी आंध्र प्रदेश के कुछ मंदिरों में वार्षिक उत्सव के अवसर पर प्रदर्शित की जाती थी.परम्परा के अनुसार कुचीपुडी नृत्य खासतौर से केवल के पुरुषों द्वारा जिसमे भी ब्राह्मण समुदाय के पुरुषों द्वारा किया जाता था. ब्राह्मण परिवार कुचीपुडी के भागवतथालू कहलाते थे. कुचीपुडी के भागवतथालू ब्राह्मणों का पहला समूह 1502 ए. डी. निर्मित किया गया था. उनके कार्यक्रम देवताओं को समर्पित किए जाते थे तथा उन्होंने अपने समूहों में महिलाओं को प्रवेश नहीं दिया.
महिला नृत्यांगनाओं के शोषण के कारण नृत्य कला के ह्रास के युग में एक सिद्ध पुरुष सिद्धेंद्र योगी ने नृत्य को फिर परिभाषित किया. कुचीपुडी के पंद्रह ब्राह्मण परिवारों ने पांच शताब्दियों से अधिक समय तक परम्परा को आगे बढ़ाया है.
प्रतिष्ठित गुरु जैसे वेदांतम लक्ष्मी नारायण, चिंता कृष्णा मूर्ति और तादेपल्ली पेराया ने महिलाओं को इसमें शामिल कर नृत्य को और समृद्ध बनाया है. डॉ॰ वेमापति चिन्ना सत्यम ने इसमें कई नृत्य नाटिकाओं को जोड़ा और कई एकल प्रदर्शनों की नृत्य संरचना तैयार की और इस प्रकार नृत्य रूप के क्षितिज को व्यापक बनाया.यह परम्परा तब से महान बनी हुई है जब पुरुष ही महिलाओं का अभिनय करते थे और अब महिलाएं पुरुषों का अभिनय करने लगी हैं.
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