
राम मंदिर के पक्ष में फैसला आने के बाद अब काशी-मथुरा मंदिर विवाद को लेकर भी एक हिंदू पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। जिसे देखकर लगता है कि राम मंदिर की तरह ही काशी-मथुरा का विवाद भी गरमाएगा। लेकिन वहीं मुस्लिम पक्ष ने इस याचिका को असंवैधानिक करार दिया है। ऐसे में आइए जानते है काशी-मथुरा के मंदिर-मस्जिद के विवाद की पूरी कहानी………
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काशी-मथुरा मंदिर और पूजा स्थल अधिनियम 1991
18 सितंबर सन् 1991 में पारित पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम के अनुसार, किसी भी धर्म के पूजा स्थल को दूसरे धर्म में परिवर्तित करना या धार्मिक आधार पर किसी भी स्मारक के रखरखाव पर रोक लगाने पर जुर्माना और तीन साल की सजा का प्रावधान है, हालांकि अयोध्या विवाद को इस कानून से बाहर रखा गया था क्योंकि वह कानून के आने से पहले चल रहा था।
ऐसे में वर्तमान में हिंदू पुजारियों के एक विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ ने इस कानून को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है। जिसके तहत कहा गया है कि हिंदुओं को अपने धार्मिक स्थल वापस लेने के अधिकारों से वंचित नहीं रखा जाना चाहिए और देश की संसद को इस विषय में ठोस कदम उठाने चाहिए।
जानकारी के लिए बता दें कि पूजा स्थल अधिनियम 1991 काशी-मथुरा के मंदिर और मस्जिद विवाद में इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस कानून के बाद से ही किसी भी मंदिर को मस्जिद में और किसी भी मस्जिद को मंदिर में बदलने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
साथ ही याचिका में स्पष्ट तौर से लिखा गया है कि यह सिर्फ हिंदूओं की धार्मिक आस्था का सवाल है, इससे किसी भी न्यायिक फैसले को चुनौती नहीं दी जा रही है। दूसरी ओर मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा ने कोर्ट में अर्जी दायर करते हुए कहा है कि कोर्ट को इस मामले में नोटिस जारी नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे मुस्लिम समुदाय में अपने पूजा स्थलों को लेकर भय पनप सकता है।
लेकिन हिंदू संगठन की मानें तो भारत के मध्यकालीन युग में इस्लामिक आक्रमण के दौरान लाखों मंदिरों को तोड़कर मस्जिद का निर्माण किया गया था। जिस पर पूजा स्थल एक्ट 1991 हिंदूओं के दावे को कानूनी रूप से कमजोर बनाता है, जिसमें सुधार की आवश्यकता है।

काशी विश्वनाथ का इतिहास
उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में स्थित भगवान शिव का यह मंदिर हिंदूओं के प्राचीन मंदिरों में से एक है, जोकि गंगा नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है। कहा जाता है कि यह मंदिर भगवान शिव और माता पार्वती का आदि स्थान है। जिसका जीर्णोद्धार 11 वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने करवाया था और वर्ष 1194 में मुहम्मद गौरी ने ही इसे तुड़वा दिया था। जिसे एक बार फिर बनाया गया लेकिन वर्ष 1447 में पुनं इसे जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने तुड़वा दिया।
फिर साल 1585 में राजा टोडरमल की सहायता से पंडित नारायण भट्ट ने इसे बनाया गया था लेकिन वर्ष 1632 में शाहजंहा ने इसे तुड़वाने के लिए सेना की एक टुकड़ी भेज दी। लेकिन हिंदूओं के प्रतिरोध के कारण सेना अपने मकसद में कामयाब न हो पाई। इतना ही नहीं 18 अप्रैल 1669 में औरंगजेब ने इस मंदिर को ध्वस्त कराने के आदेश दिए थे। साथ ही ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने का आदेश पारित किया था। आने वाले समय में काशी मंदिर पर ईस्ट इंडिया का राज हो गया, जिस कारण मंदिर का निर्माण रोक दिया गया। फिर साल 1809 में काशी के हिंदूओं द्वारा मंदिर तोड़कर बनाई गई ज्ञानवापी मस्जिद पर कब्जा कर लिया गया।
इस प्रकार इतिहास के अनुसार काशी मंदिर के निर्माण और विध्वंस की घटनाएं 11वीं सदी से लेकर 15वीं सदी तक चलती रही। हालांकि 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने ‘वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल’ को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने के लिए कहा था, लेकिन यह कभी संभव ही नहीं हो पाया। तब से ही यह विवाद चल रहा है।

मथुरा मंदिर का इतिहास
धार्मिक दृष्टि से देखें तो यह सर्वविदित है कि भगवान कृष्ण का जन्म कारगार में हुआ था। और जहां पर भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था, उसी स्थान पर मथुरा में 80-57 ईसा पूर्व में मंदिर का निर्माण किया गया था। जिसे सन् 1017-18 में महमूद गजनवी ने तुड़वा दिया था। जिसे सन् 1150 ई. में जज्ज नामक किसी व्यक्ति ने पुनं बनवाया था। जिसके बारे में कहा जाता था कि यह इतना उंचा था कि आगरा से भी दिखाई पड़ता था। और सन् 1660 में औरंगजेब ने इसी कृष्ण मंदिर को तुड़वाकर मस्जिद बनवा दी।
जिसके बाद से मथुरा के आधे हिस्से में कृष्ण का मंदिर और आधे में ईदगाह विद्यमान है, जोकि वर्तमान में विवाद का विषय है। आपको बता दें कि इसी ईदगाह के पीछे महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी की प्रेरणा से एक मंदिर का निर्माण किया गया था। साथ ही ASI पट्टी से पता चलता है कि यहां मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण किया गया था।
उपयुक्त बातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि सुप्रीम कोर्ट दोनों पक्षों की याचिका सुनने के बाद मौजूद तथ्यों के आधार पर फैसला दे सकता है। हालांकि यह कहना मुश्किल है कि मंदिर मस्जिद में से किसका पलड़ा भारी है, लेकिन मौजूदा ऐतिहासिक तथ्य इस बात की ओर इशारा करते है कि मौजूदा कानून में बदलाव की आवश्यकता है।
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