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जयन्ति महाभागा जन-सेवा-परायणा:।
जरामृत्यु नास्ति येषां कीर्तितनो क्वचित्:।।
अर्थात् समाज में कई व्यक्ति जन्म लेते है और मर जाते है। उनका कोई नाम भी नही लेता व जो व्यक्ति अपने समाज जाति और देश का हित करते है उन्हें ही हमेशा स्मरण किया जाता है।
जनसेवा में तल्लीन व्यक्ति ही जयशील होते है व उनके यश रूपी शरीर को कभी भी बुढ़ापे और मृत्यु का भय नहीं रहता है।
इतिहास साक्षी है कि इस नीले गगन के तले मां वसुन्धरा की गोद में ना जाने कितने व्यक्तियों ने महान् बनने का स्वप्न देखा, किंतु काल के कठोर प्रहार के झंझवात ने उनके व्यक्तित्व एवम् कृत्तिव को कल्पित कर दिया। परंतु इस संसार में कुछ ऐसी विभूतियां स्थान पा चुकी है, जिनके दिखाए गए सन्मार्ग का संसार आज भी अनुसरण कर रहा है। ऐसी ही एक महान् विभूतियों में से एक है- महामना मदन मोहन मालवीय जी। जो महान् शिक्षाविदों की गिनती में आज भी मुकुट में मणि के समान चमकते है।
महान् मनस्वी पण्डित मदन मोहन मालवीय जी का जन्म 26 दिसम्बर 1861 में इलाहाबाद (प्रयाग) के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित ब्रजनाथ मालवीय और माता का नाम मूना देवी था। साथ ही मालवीय जी की प्रारंभिक शिक्षा धर्म ज्ञानोपदेश पाठशाला में पूर्ण हुई थी। इसके बाद उन्होंने विद्याधर्म प्रवर्धिनी से अपनी मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उनकी उच्च शिक्षा प्रयाग के ही राजकीय विद्यालय और म्योर सेण्ट्रल महाविद्यालय से पूर्ण हुई थी। जिसके बाद मालवीय जी राजकीय विद्यालय में ही शिक्षक के पद पर कार्य़ करने लगे। अपनी अद्भुत शिक्षण शैली के कारण वह कम ही समय में एक अच्छे शिक्षक के रूप में विख्यात हो गए।
पंडित मदन मोहन मालवीय जी के व्यक्तिव को निखारने में विद्याधर्म प्रवर्धिनी विद्यालय के शिक्षक देवकीनन्दन जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इतना ही नहीं मालवीय जी का व्यक्तिव आकर्षक और प्रभावपूर्ण होने के चलते यह लोगों द्वारा काफी पंसद किए जाते थे। तो वहीं कानून के श्रेष्ठ ज्ञान, मधुर भाषण और उदार व्यवहार से ये शीघ् ही मित्रों और न्यायधीशों के बीच सम्मान के पात्र हो गए थे।
इसके अलावा महामना मालवीय जी विदान वक्ता, धर्मात्मा, नेता और पत्रकार भी थे किंतु इनका सर्वोच्च गुण लोकसेवा ही था। ऐसे में जहां कही भी ये लोगों को दुखी औऱ पीड़ित देखते थे, वहीं शीघ् उपस्थित होकर उनकी सभी प्रकार से सहायता करते थे।
देशभक्ति धर्म का ही एक अंग है।
ऐसे विचारों से ओतप्रोत मालवीय जी के बारे में लगता है कि जो कुछ भी इस दूरदृष्ट्रा ने कहा था वह आज इस संकटपूर्ण समाज को उबारने में प्रासंगिक, समसमायिक और सार्थक है। साथ ही उनका मानना था कि भारत की गरीबी तभी दूर हो सकती है, जब यहां की जनता शिक्षित और प्रबुद्ध हो। इसके अलावा मालवीय जी के विचारों से स्पष्ट होता है कि वह धार्मिक संकीर्णता के घोर विरोधी थे।
देश की प्रगति एंव उत्थान के लिए सर्वस्व त्याग और समर्पण की भावना के पोषक मालवीय जी ने सन् 1931 ई. में लंदन में आयोजित दिवतीय गोलमेज सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया और सांप्रदायिकता तथा सामाजिक सद्भाव एंव समरसता पर जोर दिया। हालांकि 1891 में मालवीय जी ने वकालत की परीक्षा पास की लेकिन देश सेवा में अनुरक्त यह युवक उच्च न्यायालय की सीमा में न रह सका।
महापुरुष सांसरिक प्रलोभनों में फंसकर अपने निश्चित लक्ष्य से कभी भी दूर नहीं होते।
ऐसी विचारधारा के घोतक मालवीय जी ने देश की प्रगति के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर दिया।
शिक्षा से ही देश और समाज में नवीन उदय होता है।
ऐसे विचारों से ओत प्रोत मालवीय जी ने शिक्षा पर विशेष बल दिया। साथ ही वह स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। शिक्षा संबंधी अपनी धारणा को साकार करने के लिए उन्होंने 1918 में बनारस में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की। जोकि भारत के प्रमुख विश्वविद्यालयों में विद्यमान है।
साथ ही यह हिंदी, हिंदु और हिंदुस्तान के कट्टर समर्थक थे। ऐसे में इनका मानना था कि बिना हिंदी ज्ञान के देश की उन्नति संभव नहीं है। साथ ही इन्होंने प्रयाग में हिंदी साहित्य सम्मेलन की भी स्थापना की थी। इतना ही नहीं मालवीय जी की अपने देश और स्वदेशी वस्तुओं के इस्तेमाल में भी गहरी आस्था थी। और यह लोगों को भी स्वदेशी के इस्तेमाल के बारे में जानकारी दिया करते थे।
मालवीय जी ने कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में अपने भाषण से सबको चकित कर दिया था। जिसके चलते साल 1909 में लाहौर के अधिवेशन में राष्ट्रीय महासभा कांग्रेस के सभापति चुने गए। तो वहीं मालवीय जी 1910 से 1920 तक उत्तर प्रदेश की केंद्रीय असेम्बली के सदस्य रहे। रौलट एक्ट के विरोध में उनके ओजस्वी भाषण को सुनकर अंग्रेज भी भयभीत हो गए थे। साथ ही महामना मदन मोहन मालवीय जी को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के दौरान कई बार जेल जाना पड़ा। लेकिन इसके बाद भी इस वीर ने अपने देश सेवा के व्रत को नहीं छोड़ा।
अपने सम्पूर्ण जीवन में अथक परिश्रम करने वाला मां भारती का यह सपूत सन् 1946 ईं. में सदा के लिए विदा हो गया। लेकिन अपने दृढ़ निश्चय, उत्साह और पुरूषार्थ के द्वारा मनुष्य असाधरण कार्य भी संभव कर सकता है, ऐसे चिंतन से युक्त मदन मोहन मालवीय जी को लोगों ने महामना की उपाधि से अलकृंत किया।
आज हमारे बीच उपस्थित न होते हुए भी महामना मदन मोहन मालवीय जी, अपने यश से अप्रत्यक्ष रूप से प्रकाश फैलाते हुए तथा घोर अंधकार में डूबे हुए मनुष्यों को सन्मार्ग दिखलाते हुए जन-जन के ह्दय में विराजमान है।
पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने महामना के लिए लिखा है कि-
प्रकाश बुझा नहीं क्योंकि वह तो हजारों-लाखों व्यक्तियों के ह्दय को प्रकाशित कर चुका है।
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