विदेश-नीति की इस दूसरी कड़ी में आज हम जानने का प्रयास करेंगे की किस तरह से मध्य-पूर्व एशिया में राजनेतिक उठापठक ने ओटोमन साम्राज्य का अंत किया और किस तरह से दुनिया में नव-अरब-अजम देशो का उभार हुआ
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प्रथम विश्व युद्ध में ओटोमन साम्राज्य( 14- 20वी शतावदी) की हार के बाद, खिलाफत का ही अंत नही हुआ बल्कि साथ में जिन देशो का उदय हुआ, उसने न केवल अति-राष्ट्रवाद बल्कि साथ में इस्लामिक देशो को भी आपसी तौर पे बाँट दिया, इस युद्ध में ओटोमन की हार के बाद ओटोमन साम्राज्य, लोकतंत्र और आधुनिकीकरण की राह पर चल पड़ा लकिन अरब और अजम देशो में ये नही हो पाया और पहले ब्रिटेन-फ्रांस और बाद में ये देश अमेरिका-रूस के प्यादे बन के रह गये.
मुस्तफा कमाल पाशा(1881-1938) ने टर्की के आधुनिकिकरण के लिए अरबी मानसिकता से टर्की को मुक्त करने का निश्चय लिया इसके लिए वो अरबी संस्कृति के विनाश पे आतुर थे, उनके द्वारा किये गये कुछ सुधारो में, प्रदेशो के नाम बदलना जैसे कुंस्तुन्तुनिया को इस्तांबुल करना, अरबी की जगह रोमन भाषा का आगमन, धार्मिक नेताओं को टोपी पहनने के बदले 10 साल की सजा का प्रावधान प्रमुख हैं, उनकी नीतियाँ मुख्य धारा की इस्लामिक और अरबी मानसिकता से मुक्ति की नीतियाँ थी फिर भी मुस्लिम जगत में उन्हें टर्की के रास्ट्रपिता के रूप में जाना जाता रहेगा, ऐसा आधुनिकीकरण शायद ही किसी ने किया हो.
दूसरी रज़ा साह पहलवी(1919-1980_ भी इसी प्रकार के बदलाव ईरान में भी करने के समर्थक थे, इसकी छाप हमे इतिहास के सबसे बड़े राजघरानो को अब तक के सबसे बड़े दावत के रूप में देखने को मिलती है, रज़ा साह ने इसके जरिये ईरान को पश्चिमी जगत में एक अलग सम्मान देने और ईरान को इस्लामिक अस्तित्व से हटा के एक विशाल सांस्कृतिक देश साबित करने का प्रयास किया लकिन वो,वो कमाल अतातुर्क साबित न हो सके, उनकी हार के पीछे कुछ कारण निम्न थे, ईरान में व्याप्त गरीबी और साह का ऐशो आराम से भरा जीवन, खुफिया पुलिस का आतंक और उसके अपराध, इत्यादि-अनादी[i]
रुहोल्ला-खोमेनी(1902-1989) जो की ईरान के एक जाने -पहचाने व्यक्तित्व थे जिनके पिता की हत्या भी साह की ख़ुफ़िया पुलिस कर चुकी थी, जो खुद साह के शासन के हर तरह से खिलाफ थे, उनकी पहचान जल्द ही किसी की मोहताज न रही उनके बढ़ते कद को देखते हुए उनकी हत्या की कोशिश की गयी, लकिन वो अंत में देश से निकल फ्रांस में सही समय का इन्तेजार करने लगे, और ये अवसर उन्हें 1979 में मिला इधर साह की सनकपन से परेशान जनता ने उनका बहोत जोरदार स्वागत किया, जल्द की साह के नियुक्त प्रधानमंत्री की हत्या करवा दी गयी और अब साह से मुक्त लोग एक नयी सनकपन का शिकार हो गये ये थी ईरानी राष्ट्रवाद की सनक, इस अति राष्ट्रवाद का एक चेहरा हमे अमेरिकी नागरिको के सबसे बड़े संकट 1979 के रूप में देखने को मिलता है, यही वो कारण है जिसने ईरान अमेरिका के रिश्तो में आज तक खटास को भर रखा है, और ईरान के लिए आज भी अमेरिका साह का पिठू है ईरान की घडी 1980 के दशक में अटकी है
जल्द ही ये ईरानी राष्ट्र इस्लामी लोकतंत्र का मुखोटा पहन अरब राष्ट्रों के बीच शिया लोगो को लामबंद करने लगा, इस से सबसे ज्यादा खतरा सद्दाम हुसैन को था जो खुद सुन्नी था लकिन 60% शिया मुल्क पे राज़ कर रहा था, वही इन दोनों ही देशो से चिढ़ा हुआ अमेरिका किसी मोके की तलाश में था क्यों की पहले पहलवी को हटा ईरान और फिर सद्दाम ने अमेरिका दुश्मनी मोल ले ली थी, जल्द ही इराक विरोधी अरब देशो और अपने पश्चिमी देशो के साथ ईरान को डेजर्ट स्ट्रोम(1990-1991) और बाद में आए.एस.आए.एस(2014 से वर्तमान) ने इराक को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया रही सही कसर महंगाई और घूसखोरी ने पूरी कर दी[i]
वही यहुदियो का समापन इस्लाम के आगमन के साथ मध्य-पूर्व में हो चूका था, लकिन यहूदी लोग यूरोप और अमेरिका में बस गये और जल्द ही बड़े व्यापारियो के रूप में जाने जाने लगे, वही ओटोमन साम्राज्य से ब्रिटेन की दुश्मनी के कारण हुसैन और फैसल को अरब में लामबंद किया और अरब में हुसैन को बढ़ावा दिया, बदले में विशाल अरब साम्राज्य का वादा किया, कुर्द जल्द ही इस बात से चिढ गये और आज के कुर्द संकट का भी इसी से जनम हुआ, दूसरी और सेस्पिकोत संधि के जरिये, ब्रिटेन और फ्रांस ने गुप्त समझोता किया की अपने विजित हिस्सों को आपस में बाँट लेने का वादा किया,
दूसरी और यहुदियो ने ब्रिटेन को युद्ध करने में जो आर्थिक मदद की उसके बदले में ब्रिटेन और फ्रांस से अपने धार्मिक ग्रंथो में वर्णित मात्रभूमि का वादा लिया, ब्रिटेन और फ्रांस ने यहाँ पे एक संधि कर ली प्रथम विश्व युद्ध के वाद देश का वादा वाल्फोर घोषणा के रूप में शामिल आया, और अपने जीते है हिस्से पे एक अरब नेशन न बना के उसे छः देशो में बाँट दिया गया और यह से शुरू हुआ इस अरब देशो में आपसी तनाव, सरिया और लेबनोन पे फ्रांस का अधिपत्य स्थापित हुआ और इराक और फिलिस्तीनी हिस्से पे ब्रिटेन का, जैसा की ब्रिटेन का वादा था, उसने फिलिस्तीनी हिस्से को खोल दिया और यहुदियो ने वह ऊँची दाम पे जमीने खरीद ली और जल्द ही जमीं पे कब्ज़ा करने लगे, फिलिस्तिनियो में इस बात को लेके गुस्सा साफ़ दिखने लगा
वही दुसरे विश्व युद्ध के वाद ब्रिटेन की संधि का पालन नयी महाशक्ति अमेरिका ने शुरू और यहूदी और फिलिस्तीनी में देश का बटवारा कर दिया यु.अन.ओ( 29 नवम्बर 1949)ने जल्द ही इस विषय पे अपना फैसला सुनाया और 35% हिस्सा यहुदियो को और 65% हिस्सा फिलिस्तिनियो को देने का फैसला सुनाया, लकिन अरब देशो ने इसका विरोध किया और जल्द ही ये तनाव अरब-इसराइल युद्ध(1967) में बदला और आखिरकार अरब देशो की हार हुई,और इसराइल का वर्तमान में 70% हिस्से पे कब्ज़ा हो गया,[i] वर्तमान में ट्रम्प का यहूदी समर्थन और हिलेरी क्लिंटन के चुनावों पर भी इस का प्रभाव देखा जा सकता है, क्लिंटन का फिलिस्तीनी विवाद पे कूदना यहूदी धड़े को पसंद नही आया और असंभव सा ट्रम्प की जीत सच हो गयी
खैर हुसैन और उसके हाशमी काबिले ने जल्द ही अरब के कई देशो में अपनी शक्ति ज़माने की कोशिश की इसमें सरिया, ओमान, लेबनोन, जोर्डन इत्यादि प्रमुख हैं, यहाँ ये भी ध्यान देने वाली बात हैं की सोवियत संघ और अब रूस इस किस्से की राजनीती में अमेरिकी और पश्चिमी राजनीती के एक और और विरोधी थे और हैं, फलत अरब राजनीती कई मोर्चो पर समर्थन से टिकी हुई है या तो उसे अमेरिका या तो रूस के आगे झुकना ही पड़ता है, और ये दोनों ही अपनी सामरिक लड़ाई में इन देशो को हथियार और ये देश उन्हें इंधन से लामबंध करते हैं
शायद इन सब से जो सबसे ज्यादा कोल्हू के बैल की भांति पिसा वो कोई और नही अरब नागरिक ही था आज ये अरब जगत अपनी सत्ता को अपने की नागरिको से बचने में लगा हुआ है, पहले राजशाही फिर सैनिक तानाशाह ये एक सामान्य बात हो गयी है, अब अरब दुनिया 2010 से तुनिशिया से शुरू हुएअरब स्प्रिंग का सामना कर रही है अरब नागरिको की मांग अब वास्तविक लोकतंत्र है लकिन क्या ये संभव है और है तो कब तक ये हम समय पर रहने देते हैं[i]
वर्तमान में अरब जगत धार्मिक टकराव शिया-सुन्नी-वहावी-अन्य मुख्य धारा इस्लाम के साथ राजनेतिक स्वार्थ में अरब राष्ट्र के सपने देखता हैं, और एक दुसरे को कमजोर कर अपनी धार्मिक मान्यताओं पर एक नए सगठित अरब राष्ट्र को जिन्दा करना कहता है, लकिन सब इस राष्ट्र में खलीफा की भूमिका में खुद को देखते हैं और जो नही देखते वो खलीफा के बाये-दाएं बाजु जरुर बनना कहते हैं
[1] Omur,Modernity of Islam
[2] Taheri,Sprit,1985,pp-240
[3] Moin, Khomeini, 2001,pp-243-254
[4] Simons, 2003, pp-300-350
[5] Great Powers and the Middle east After WW-2, By Karol.R.Sorby
[6] Brams and Togman,1998,pp-240-43 [1] Uprising in the region and ignored indicators
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