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राजा रणजीत सिंह :भगवान ने मुझे एक आंख इसलिए दी है ताकि मैं हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई सबको बराबर की दृष्टि से देख संकू

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राजा रणजीत सिंह  बोलते थे मुझे एक आंख इसलिए दी है ताकि मैं हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई सबको बराबर की दृष्टि से देख संकू। मात्र 12 साल की उम्र में चेचक की वजह से इनकी एक आंख की रोशनी चली गई थी ।

शेर-ए-पंजाब के नाम से प्रसिद्ध महाराजा रणजीत सिंह पंजाब प्रांत के राजा थे। इनका जन्म सन् 1780 में गुजरांवला (पाकिस्तान) में महाराज संधावालिया महां सिंह के घर में हुआ था। इनके पिता महा सिंह सुकरचकिया मिसल के कमांडर थे और माता राज कौर थी। अपने माता-पिता के संरक्षण में वह 10 साल की उम्र में ही घुड़सवारी, तलवारबाजी और युद्ध कौशल में निपुण हो गए थे। हालांकि महाराजा रणजीत सिंह को पढ़ने का मौका नहीं मिला लेकिन राजा बनने के बाद उन्होंने अपने शासनकाल में कला और शिक्षा को काफी बढ़ावा दिया।

महाराजा रणजीत सिंह के जीवन के बारे में

कहा जाता है पिता की मृत्यु के बाद महाराजा रणजीत सिंह सिक्ख मिसलों के एक छोटे से समूह के सरदार बना दिए गए थे। और मात्र 17 वर्ष की आयु में उन्होंने रावी और चिनाब नदी के प्रदेशों के प्रशासन का कार्य़भार संभाला। महाराजा रणजीत सिंह के विवाह के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने सिख, हिंदू और मुस्लिम महिलाओं को मिलाकर कुल 20 शादियां की।

सबसे पहले महाराजा रणजीत सिंह जब मात्र 15 वर्ष के थे, तो कन्हया मिसल के सरदार की बेटी के साथ उनका विवाह हुआ। इस दौरान वह अपनी सास सदाकौर द्वारा कई युद्धों के लिए शिक्षा लेते रहे। वहीं उनके दूसरे विवाह के चलते वह सिख रजवाड़ों के लिए महत्वपूर्ण हो गए। कहते है कि अपनी सभी पत्नियों में से वह महारानी जिंदियन को अधिक पंसद किया करते थे।

साथ ही 12 अप्रैल 1801 को गुरुनानक के एक वंशज ने रणजीत सिंह को महाराजा की उपाधि से अलंकृत किया। इस दौरान उन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाई। इस दौरान जब उनके हाथों में पंजाब की सत्ता आई, तो उन्होंने वहां नियम और कानून स्थापित किया। साथ ही उनके शासनकाल में किसी को भी सजा ए मौत न दी गई। वहीं महाराज रणजीत सिंह मांस के सेवन का विरोध करते थे और अपने दरबारियों को भी मना किया करते थे। कहा जाता है कि महाराजा रणजीत सिंह जब राजा बने तो उन्होंने अंग्रेजों को पंजाब के आसपास तक नहीं भटकने दिया।

महाराजा रणजीत सिंह

भगवान ने मुझे एक आंख इसलिए दी है ताकि मैं हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई सबको बराबर की दृष्टि से देख संकू

सांवले रंग और नाटे कद काटी वाले महाराजा रणजीत सिंह एक दूरदर्शी व्यक्ति थे। चेचक की बीमारी में एक आंख खराब होने के कारण उनकी आंखों की रोशनी जरूर चली गई थी। लेकिन उनका तेजस्वी गुण कम न होने पाया। इतना ही नहीं रणजीत सिंह बड़े ही उदारवादी राजा थे, वह जब भी किसी राज्य को जीत लेते थे तो वह अपने शत्रु को बदले में कुछ ना कुछ जागीर दे दिया करते थे। ताकि वह अपना जीवन बसर कर सकें।

वहीं उन्होंने कभी किसी को सिख बनने के लिए जबरदस्ती नहीं की, इस प्रकार उनके चरित्र से धर्मनिरपेक्षता का गुण साफ झलकता है। अपने इन्हीं गुणों की वजह से महाराजा रणजीत सिंह को 19वीं सदी के एक वैश्विक स्तर की प्रतियोगिता में सिक्खों के सर्वकालिक महान् नेता के रूप में जाना जाने लगा।

शेर ए पंजाब द्वारा लड़े गए युद्धों की गाथा

ब्रिटिश इतिहासकार जे टी व्हीलर के अनुसार, अगर महाराजा रणजीत सिंह एक पीढ़ी पुराने होते, तो पूरे हिंदूस्तान को ही फतह कर लेते।  

महान् योद्धा महाराजा रणजीत सिंह

महाराजा रणजीत सिंह ने मात्र 17 वर्ष की आयु में ही जमन शाह दुर्रानी को हराया था। तो वहीं 13 साल की कोमल अवस्था में उनपर हशमत खां ने प्रहार किया था लेकिन किशोर रणजीत सिंह ने उसे भी मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकार वह मात्र 21 वर्ष की आयु में पंजाब के महाराजा बनकर उभरे। इसके अलावा महाराजा रणजीत सिंह ने अफगानों के साथ युद्ध लड़कर उन्हें पश्चिमी पंजाब की ओर खदेड़ दिया। इतना ही नहीं सिक्खों की आधुनिक सिख खालसा सेना के निर्माण का श्रेय भी महाराजा रणजीत सिंह को ही जाता है। महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब प्रांत के साथ ही पेशावर, जम्मू कश्मीर और आनंदपुर समेत पश्तुन क्षेत्र पर भी कब्जा जमाकर अपनी ताकत का परिचय दिया।

कोहिनूर का हीरा और कश्मीर की कुर्बानी

मशहूर और बेशकीमती कोहिनूर जोकि किसी समय में महाराजा रणजीत सिंह के खजाने की शान हुआ करता था, उनकी मृत्यु के बाद उनके ही पुत्र दिलीप सिंह से अंग्रेजों ने कोहिनूर जुर्माने की रकम के तौर पर हड़प लिया। और जिसे एक माह और 8 दिन तरासने के बाद महारानी विक्टोरिया के ताज में जड़वा दिया। इतना ही नहीं महाराजा रणजीत सिंह की मौत के बाद अंग्रेजों द्वारा सिक्खों पर लगाए गए जुर्माने की राशि न दे पाने के कारण कश्मीर और हजारा भी सिखों से छीन लिया गया था।

महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा

धार्मिक स्थलों का निर्माण

27 जून 1839 को महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद उनकी 180वीं पुण्यतिथि पर पाकिस्तान के लाहौर में उनकी 8 फीट ऊंची प्रतिमा बनवाई गई। जानकारी के लिए बता दें कि महाराजा रणजीत सिंह ने अमृतसर के जिस हरिमंदिर साहिब गुरुद्वारे में संगमरमर लगवाया उसे आज स्वर्ण मंदिर के नाम से जाना जाता है।

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Anshika Johari

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