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रामकृष्ण गोपाल भंडारकर भारतीय इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्तित्व थे। वह एक बड़े प्राच्यवादी विद्वान तथा समाज सुधारक थे। उन्हें आधुनिक भारत का पहला स्वदेशी इतिहासकार भी माना जाता है। उनका जन्म 6 जुलाई 1837 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में एक गौड़ सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता रत्नागिरी के राजस्व विभाग में क्लर्क थे।
रत्नागिरी में प्रारंभिक शिक्षा के बाद 1853 में रामकृष्ण एल्फिंस्टोन इंस्टीट्यूट, बॉम्बे में भर्ती हुए। 1862 में वह बॉम्बे विश्वविद्यालय के आरंभिक स्नातकों में से एक थे बाद में यहाँ उन्होंने कुलपति के पद पर कार्य भी किया था। संस्कृत परास्नातक (पोस्ट-ग्रेजुएशन) के बाद वे जर्मनी के गोतिन्गे विश्वविद्यालय से 1885 में पीएचडी से सम्मानित हुए। प्राच्यवादियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन मे शामिल होने के लिए वे 1874 में लंदन तथा 1886 में वियना भी गये।
विद्यार्थी जीवन से ही उन्होंने अपना रुख़ समाज सुधार की तरफ कर लिया था। उन्होंने अपना ज्यादातर जीवन पढ़ाने और समाज-सुधार में लगा दिया। उनके जीवन का लगभग 60 साल सामाजिक कार्यों में व्यतीत हुआ। इस दौरान उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण किताबें भी लिखीं। 1911 में उन्हें नाइट ( Knight) की उपाधि से सम्मानित किया गया। 24 अगस्त 1925 में 88 वर्ष की उम्र में उनका देहावसान हो गया।
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रामकृष्ण गोपाल को हम एक पुनरुत्थानवादी सोच के साथ राष्ट्रवादी व्यक्ति मान सकते हैं। उन्होंने बिना अंग्रेजी का विरोध किए भारतीय संस्कृति और परंपरा पर जोर दिया तथा उस पर पड़ रहे पाश्चात्य प्रभावों का विरोध किया। उन्हें संस्कृत, पाली और मागधी का ज्ञान था। वह एक तार्किक और वस्तुनिष्ठ व्यक्ति थे। इसीलिए उन्होंने अपनी पुस्तकों में भारतीयता पर जोर दिया साथ ही तार्किक तरीके से विदेशी प्रभावों का विरोध भी किया।
इन सबके साथ में उनके व्यक्तित्व में एक शोधपरक सोच भी शामिल थी। इसीलिए उन्होंने अपनी पुस्तकों में शोध को प्रमुखता से स्थान भी दिया। वह भारतीय संस्कृति के रूढ़िवादी विचारों को दूर करने के प्रबल समर्थकों में से एक थे। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वह जो कहते थे या उपदेश देते थे उसका पालन भी करते थे वह भले ही सारे समाज के विरोध से ही क्यों न हो।
1853 ई. में वो सबसे पहले परमहंस सभा का सदस्य बनते हैं। जो मुक्त और उदारवादी विचारों के साथ ही साथ समाज के रूढ़िवादी विचारों के विरुद्ध संस्था थी। 1867 में वह प्रार्थना समाज के मूल संस्थापकों आत्माराम पांडुरंग, वासुदेव बाबाजी नौरंगे, महादेव गोविंद रानडे, वामन अबाजी मोदक और नारायण गणेश चंदावरकर के साथ जुड़ जाते हैं। प्रार्थना समाज भारतीय नवजागरण के समय स्थापित एक प्रमुख संस्था थी। जिसके नेतृत्वकर्ता महादेव गोविंद रानाडे थे। इनके नेतृत्व में बहुत महत्वपूर्ण कार्य किए गए जो निम्न हैं –
1890 के दशक में इन्होंने नारी जागरण के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किया इसी जागरण के अंतर्गत 1882 में आर्य महिला समाज तथा 1885 में भंडारकर ने वामन अबाजी मोदक के साथ महाराष्ट्र गर्ल्स एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना कि जो नारीशिक्षा को बढ़ावा देने वाली प्रमुख संस्था बनी। इस संस्था में अंग्रेजी साहित्य, अंकगणित के साथ विज्ञान की भी शिक्षा दी जाती थी। उन्होंने अपनी पुत्रियों और पौत्रियों को विश्वविद्यालयी शिक्षा दिलवाई थी।
भंडारकर विधवाओं के पुनर्विवाह के बड़े समर्थक थे। साथ ही वह बाल विवाह के भी खिलाफ थे। उन्होंने अपने विधवा पुत्री के पुनर्विवाह की अनुमति दी थी।
वह छुआछूत और जातिप्रथा के खिलाफ थे। 1912 के एक दलित वर्ग के सम्मेलन में उन्होंने संस्कृत और पाली ग्रंथों के माध्य से न केवल विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा का समर्थन किया वरन् अस्पृश्यता को खत्म करने के लिए हिन्दुओं का आह्वान भी किया।
भण्डारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट नामक संस्था को पूणे में स्थापित किया गया है। इस संस्थान को रतन टाटा , दादा भाई नरौजी के साथ-साथ मुंबई प्रशासन ने मिलकर स्थापित किया था। 1917 में इस संस्थान का उद्घाटन किया गया। इस संस्थान के उद्घाटन के लिए गवर्नर लार्ड विलिंग्डन आए थे। 1919 में भंडारकर की अध्यक्षता में यहाँ आल-इण्डिया कॉन्फ्रेस ऑफ़ ओरिएंटल स्कालर्स नाम से प्राच्यवादियों का प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन आयोजित हुआ जिसने प्राच्य ग्रंथमाला का आरंभ किया। इस संस्थान की जिस दिन स्थापना हुई उसी दिन भंडारकर ने अपनी सभी पुस्तकों तथा शोध संबंधित तमाम पत्रिकाओं आदि से बने पुस्तकालय को इसे दान कर दिया था।
इस प्रकार भंडारकर हमारे देश के एक महान समाज सुधारक के साथ-साथ एक बड़े विद्वान भी थे। शोध के क्षेत्र में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। इनकी विरासत को सहेजना हमारी जिम्मेदारी है।
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