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शिक्षक को समाज और राष्ट्र निर्माता का दर्जा दिया गया है। समय के साथ-साथ हमारे देश में शिक्षा की प्रणालियाँ विकसित होकर बदलती गई पर आज भी शिक्षक को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। जीवन के विभिन्न मोड़ पर हमें अलग-अलग शिक्षकों की आवश्यकता होती है। सिर्फ सामान्य मानव ही नहीं हमारे संस्कृति में भगवान माने जाने वाले राम और कृष्ण के भी गुरू थे। इसीलिए शिक्षक दिवस की इस अवधारणा के पहले भी और आज भी गुरू पूर्णिमा मनाई जाती है। यूनेस्को द्वारा 5 अक्टूबर को शिक्षक दिवस के रूप में अपनाया गया। हमारे भारत देश में शिक्षक दिवस 5 सितम्बर को मनाया जाता है।
सामान्य तौर पर हम यह समझते हैं कि जो हमें पढ़ाते हैं वो शिक्षक होते हैं। हाँ यह बात सही है पर इसके साथ हम जिस किसी से भी शिक्षा प्राप्त करते हैं या कोई भी चीज सीखते हैं वह हमारा शिक्षक बन जाता है। हमारे संस्कृति में शिक्षक के लिए गुरू शब्द का प्रयोग किया गया है। गुरू का विश्लेषण करने पर हमारे सामने जो अर्थ आता है वह है – ‘अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला’। इस प्रकार हमारी संस्कृति में गुरू के लिए बहुत व्यापक शब्द है।
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हमारे देश के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति भारतरत्न डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे। वह एक दार्शनिक और विद्वान शिक्षक भी थे। 1962 में जब उनके मित्रों और विद्यार्थियों ने उनके जन्मदिन को मनाने की इच्छा जताई कि वह उनका जन्मदिन मनाना चाहते हैं तो उन्होंने कहा कि यह ज्यादा अच्छा होगा कि अगर उनके जन्मदिन यानी 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मानाया जाए। और तब से यह परंपरा चली आ रही है कि हम 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं तथा उन्हें धन्यवाद देते हैं।
5 सितंबर 1988 को जन्मे राधाकृष्णन एक महान दार्शनिक और विद्वान शिक्षक होने के साथ-साथ बड़े राजनेता भी थे। बचपन से ही वह मेधावी प्रकृति के थे। उन्हें 12 वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें बाईबल याद हो गई थी और उन्होंने कला संकाय की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। उसके बाद उन्होंने दर्शन शास्त्र से एम.ए. किया। तत्पश्चात वह मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक के रूप में कार्यरत रहे। आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में वह कुछ वर्ष प्राध्यापक के रूप में कार्यरत थे। इसके अलावा वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय तथा दिल्ली विश्वविद्यालय में चांसलर के पद पर भी कार्यरत थे। अपने अध्यापन के दौरान वह दर्शन जैसे गूढ़ विषय को दिलचस्प ढंग से पढ़ाते थे। उन्हें तेलुगु के अलावा हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान था। वह संविधान निर्माता सभा के सदस्य के रूप में 1947-49 तक कार्यरत थे। 1952 में उन्हें उपराष्ट्रपति चुना गया तथा 1962 में राष्ट्रपति चुना गया। सोलह बार उनका नाम साहित्य के नोबल पुरस्कार तथा ग्यारह बार शांति के लिए नोबल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। 1952 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
जैसा कि हमने शुरू में ही कहा कि शिक्षक की आवश्यकता सिर्फ हमें नहीं वरन् राम और कृष्ण को भी पड़ी। गुरू जीवन का एक बहुत महत्वपूर्ण भाग होते हैं। हम बचपन से लेकर आख़िरी वक्त तक सीखते हैं। हमारी सबसे पहली गुरू माँ होती है। हमारे यहाँ गुरू को ब्रह्मा, विष्णु, महेश और परम्ब्रह्म के रूप में स्वीकार किया गया है। इसी के साथ अगर हम उसी परम्परा में आगे आएं तो पाते हैं कि तुलसीदास और कबीर ने भी गुरू की महत्ता स्वीकार की। तुलसीदास रामचरितमानस की शुरुआत ही गुरू की वन्दना से शुरुआत करते हैं- “बन्दउ गुरु पद पदुम परागा…”। इसी के साथ कबीर भी गुरू की महत्ता बताते हुए अनेक दोहे लिखते हैं एक तो बहुत प्रसिद्ध है – “गुरू गोविन्द दोउ खड़े…”। इन्हीं कबीर की परम्परा में दादू और रैदास भी गुरू के महत्व को मानते हैं। हमारे यहाँ आध्यात्मिक गुरुओं की जो परम्परा है उन्हें ‘सद्गुरु’ से कहकर सम्बोधित किया जाता रहा है। वल्लभाचार्य परम्परा, निम्बार्काचार्य परम्परा, चैतन्य महाप्रभु की गौड़ीय परम्परा आदि गुरू शिष्य परम्परा के महत्वपूर्ण उदाहरण माने जा सकते हैं। सिख समुदाय में भी गुरूओं की एक बड़ी परम्परा रही जिसमें गुरू नानक देव, गुरु अर्जुन देव तथा गुरू तेग बहादुर आदि हुए। बौद्ध धर्म में महात्मा बुद्ध को गुरु मानकर गुरू शिष्य परंपरा की शुरुआत हुई तथा जैन धर्म में भी ऋषभदेव से लेकर महावीर तक के तीर्थंकर जो हुए उनकी भी परंपरा चलती गई। इस प्रकार प्राचीन और मध्यकालीन समय में हमें यह परम्परा देखने को मिलती है। अब अगर आधुनिक काल की बात करें तो हम शंकराचार्य की परम्परा को आज भी पाते हैं। साथ ही विवेकानंद आदि द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन में भी यह परम्परा मिलती है।
इस प्रकार शिक्षक दिवस पर हम हर शिक्षक का मूल्य आदरणीय राधाकृष्णन के माध्यम से याद करते हैं तथा उनके द्वारा निर्मित समाज और राष्ट्र में अपना सकारात्मक योगदान देने का संकल्प लेते हैं।
विशेष रूप से, डॉ। राधाकृष्णन को उनके कई छात्रों ने सराहा, जिन्होंने 1962 में राष्ट्रपति बनने के बाद उनसे पूछा कि क्या वे उनके जन्मदिन को ‘राधाकृष्णन दिवस’ के रूप में मना सकते हैं।
उन्होंने जवाब दिया, “मेरा जन्मदिन मनाने के बजाय अगर 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, तो यह मेरे लिए गौरवपूर्ण बात होगी ।”
और इसलिए, पहला शिक्षक दिवस 5 सितंबर को 1962,को भारत में मनाया गया था।
हमारे देश के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति भारतरत्न डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे। वह एक दार्शनिक और विद्वान शिक्षक भी थे। 1962 में जब उनके मित्रों और विद्यार्थियों ने उनके जन्मदिन को मनाने की इच्छा जताई कि वह उनका जन्मदिन मनाना चाहते हैं तो उन्होंने कहा कि यह ज्यादा अच्छा होगा कि अगर उनके जन्मदिन यानी 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मानाया जाए। और तब से यह परंपरा चली आ रही है कि हम 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं तथा उन्हें धन्यवाद देते हैं।
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