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दाग़ देहलवी शायरी : अगर आपने कभी उर्दू साहित्य पढ़ा है तो आप दाग़ देलहवी को जरूर जानते होंगे, उनके बारे में यह बात सही है कि छिले हुए दिल से बहे लहू में भीगकर जब कलम चलती है, तो ऐसा शेर और दाग दहेलवी जैसा शायर पैदा होता है। दाग की शायरी में दर्द और नयेपन का ऐसा मिश्रण देखने को मिलता है कि जिसे पढ़ने के बाद काफी समय तो उनमें खोए रहने का मन करता है। उनका जीवन मोहब्बत की एक नई इबारत है, जो महबूबा से बिना अपेक्षा के मोहब्बत करना सिखाता है। यह देखकर ओठों पर मुस्कान के साथ सिर दाग की सलामी में झुक जाता है। दाग देहलवी का असल नाम नवाब मिर्जा खां था। दाग नाम उन्होंने अपने भीतर के शायर के लिए चुना था। देहलवी यानी दिल्ली का या दिल्लीवाला, इसे उन्होंने अपना तखल्लुस बनाया। 25 मई, 1831 दाग इस दुनियां में आएं। दाग महज 4 या 5 साल के ही रहे होगे कि इनके पिता ने इस दुनिया से अलविदा कह दिया था। उसी दौरान उनकी मां ने बहादुर शाह ज़फर के बेटे मिर्जा फखरू से दूसरी शादी की थी। उस समय दाग दिल्ली में लाल किले में रहने लगे थे। यहां दाग को हर तरीके की तालीम दी गई। और इसी दाग को शायरियां करने का शौक लग गया।
उस समय ये नवाब शायर वर्ष 1857 की तबाहियों से गुजरे थे। दिल्ली के गली-मोहल्लों में उस समय जो लाशों का नज़ारा था वो उन्होंने देखा था। लाल किले से निकलकर तिनका-तिनका जोड़कर जो आशियाना उन्होंने बनवाया था, उसे उन्होंने बिखरते हुए भी देखा था। बाद में उन्होंने दिल्ली को छोड़ दिया था, लेकिन मन से वो कभी दिल्ली को भूल नहीं पाएं। दाग रामपुर रह रहे थे, लेकिन उनके दिल में तो दिल्ली बसती थी। कहते हैं इस स्थान परिवर्तन का गम भी उन्हें जिंदगी भर सताता रहा। यह बात सत्य है कि दाग के जीवन का अधिकांश समय दिल्ली में व्यतीत हुआ था और इसी कारण उनकी शायरी में दिल्ली की तहजीब नजर आती है। उन्हें पढ़ने पर लगता है कि उनकी शायरी इश्क़ और मोहब्बत की सच्ची तस्वीर पेश करती है।
यहाँ एक बात गौर करने की है कि दाग़ का जीवन भी उनके नाम जैसा ही रहा..जख्मों के ऊपर फिर जख्म, जो उनके जहन में एक दाग बनकर दिल के कोने में छप गया। छोटी उम्र में पिता को खोने का दर्द, मां की दूसरी शादी, जिस दिल्ली से उन्हें बेहद लगाव, उसी दिल्ली से उनकी रूख्सत ,और जिस प्यार को उन्होंने गले लगाना चाहा उस प्यार से भी रूसवाई, दाग की जिंदगी कुछ ऐसे ही दागों से भरी थी। मुन्नीबाई हिजाब नाम की एक गायिका और तवायफ़ से दाग का मशहूर इश्क इसी माहौल की देन था। उनका यह इश्क आशिकाना कम और शायराना ज्यादा था। दाग उस वक्त आधी सदी से अधिक उम्र जी चुके थे, जबकि मुन्नीबाई हर महफिल में जाने-महफिल होने का जश्न मना रही थी। अपने इस इश्क की दास्तां को उन्होंने फरयादे दाग़ में मजे के साथ दोहराया है। उनके जीवन में मुन्नीबाई से दाग का यह लगाव जहां रंगीन था, वहीं थोड़ा-सा संगीन भी। दाग़ देहलवी उनके हुस्न पर कुर्बान थे और वह नवाब रामपुर के छोटे भाई हैदरअली की दौलत पर मेहरबान थी।
उनके इश्क को लेकर नवाब हैदरअली ने कुछ गुस्ताख़ी को न सिर्फ़ क्षमा किया, बल्कि उनके खत का जवाब खुद मुन्नीबाई उन तक लेकर आई। नवाब हैदरअली का जवाब था कि- “दाग साहब, आपकी शायरी से ज़्यादा हमें मुन्नीबाई अजीज नहीं है।” लेकिन वहीं मुन्नीबाई की उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएं थी, वो घर की चार दीवारी में सीमित होकर पचास से आगे निकलती हुई गजल का विषय बनकर नहीं रह सकती थी। वह दाग के पास आई, लेकिन जल्द ही दाग को छोड़कर वापस बाजार की जीनत बन गयी।
दाग़ ने अपने जीवन में बहुत परेशानियों का सामना किया। वो नवाब रामपुर कल्बे अली खां के देहांत के बाद रामपुर में अधिक समय तक नहीं रह सके। क्योंकि समय ने फिर से उनसे छेड़छाड़ शुरू कर दी थी। लाल किले से निकलने के पश्चात चैन की जो चंद सांसे आसमान ने उनके नाम लिखी थी, वह अब पूरी हो रही थीं। वह बुढ़ापे में नए सिरे से मुनासिब जमीं-आसमान की तलाश में कई शहरों की धूल छान कर नवाब महबूब अली खां के पास हैदराबाद में चले आए। दाग़ देहलवी अब ढलती उम्र से निकलकर बुढ़ापे की सीमा में दाखिल हो चुके थे। उन्हें कई बीमारियों ने घेर लिया था। हैदराबाद में दाग को पांव जमाने में साढ़े तीन साल से ज़्यादा का समय लगा। दोस्तों की मदद के सहारे उनका समय कट रहा था। जब वक्त ने कई बार परीक्षा लेकर भी उन्हें मायूस होते नहीं देखा तो मजबूरी ने उन्हें नवाब के महल तक पहुंचा दिया और अब वे नवाब के उस्ताद नियुक्त हो गए। उनके इस सम्मान की शोहरत ने मुन्नीबाई के दिल में उस जमाने की यादों को फिर से जगा जगा दिया, जिनको भुलाकर वह अपने किसी साजिदे के निकाह में आ चुकी थी। वह अपने पति से तलाक लेकर दाग देहलवी के पास हैदराबाद चली आई। वह जिस समय हैदराबाद आई थी, उस समय दाग 72 वर्ष के हो चुके थे। उन्होंने मुन्नीबाई को फिर बाहें फैलाकर स्वीकार कर लिया। पता नहीं यह दाग का बड़प्पन था या फिर टूटकर किसी को प्यार करने की खूबी।
उनका एक ‘दीवान’ 1857 की लूटमार की भेट चढ़ गया था। दूसरा उनके हैदराबाद के निवास के दौरान किसी के हाथ की सफाई का शिकार हो गया। इन दो दीवानों के खो जाने के बावजूद दाग के पांच दीवान ‘गुलजारे दाग’, ‘महताबे दाग’, ‘आफताबे दाग’, ‘यादगारे दाग’, ‘यादगारे दाग- भाग-2’, जिनमें 1038 से ज़्यादा गजलें, अनेकों मुक्तक, रुबाईयां, सलाम मर्सिये आदि शामिल थे, इसके साथ ही एक 838 शेरों की मसनवी भी ‘फरियादे दाग’ के नाम से प्रकाशित हुई। इतने बड़े शायरी के सरमाये में सिर्फ उनकी मोहब्बत की बाजारियत को ही उनकी शायरी की पहचान समझना सबसे बड़ी भूल होगी। दाग को जो भी पढ़ता हैवुसके मन में जरूर आता है कि- दाग के दिल के दाग अच्छे थे…
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