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8 सितंबर को विश्व साक्षरता दिवस मनाया जाता है। इसका उद्देश्य हर व्यक्ति, समुदाय और समाज को साक्षरता के प्रति जागरूक करना है। यूनेस्को ने 26 अक्टूबर 1966 को 8 सितंबर को अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस के रूप में घोषित किया था। हमें पता है कि भारत एक बहुत बड़ा देश है जो अनेक छोटे बड़े समुदायों से मिलकर बना है। अतः यह ज़रूरी है कि भारत के लोग इसके प्रति जागरूक रहें। साथ ही साथ यह भी ज़रूरी है कि हमें पता हो कि हमारी ख़ामियाँ कहाँ हैं, हमें साक्षरता के विकास के लिए अभी किन लक्ष्यों को पार करना है और किन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। याद रखें कि नेल्सन मंडेला ने कहा था कि ‘शिक्षा ही एक ऐसा हथियार है जिससे हम दुनिया को बदल सकते हैं।’
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वर्तमान में भारत द्वारा अपनाई गई शिक्षा पद्धति का ज्यादातर हिस्सा औपनिवेशिक शासन में ब्रिटिश सरकार द्वारा तय नीतियों और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बनी अनेक आयोगों से होते हुई आई है। भारत में शिक्षा का अगर हम इतिहास देखें तो वैदिक काल की जो शिक्षा थी वह शिक्षक केंद्रीत थी जिसे गुरुकुल कहा जाता था। यह शिक्षा पद्धति शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच संबंध को बढ़ावा देता था। इसका लक्ष्य विद्यार्थियों में अनुशासन तथा दायित्वबोध को जगाना था। कालांतर में इसका रूप बदलता चला गया और संस्थानिक शिक्षा की ओर बढ़ा।
तक्षशिला विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय माना जाता है। जिसकी स्थापना 700 इ.पू. में हुई। इसके बाद चौथी शताब्दी में नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। आर्यभट्ट, चरक, सुश्रुत, चाणक्य, आदि इन्हीं विश्वविद्यालयों से ज्ञान प्राप्त किया और ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों, जैसे- गणित, खगोल विज्ञान, भौतिकी, रसायन शास्त्र, चिकित्सा विज्ञान और शल्य चिकित्सा इत्यादि में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
इसके बाद हमें स्वाधीनता संग्राम आंदोलन की पृष्ठभूमि में भारत में चल रहे अनेक जागरण आंदोलनों द्वारा स्थापित पाठशालाओं का उदाहरण मिलता है। इस काल में गोपालकृष्ण गोखले, राजा राम मोहन रॉय, रविन्द्रनाथ टैगोर तथा महात्मा गाँधी आदि ने शिक्षा की पद्धति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसके अलावा अंग्रेजों ने अपनी सुविधा के अनुसार भी शिक्षा पद्धति को बदलने की कोशिश की।
इन सभी चरणों के बाद हमारी आज की शिक्षा पद्धति का विकास हुआ।
शिक्षा की वर्तमान प्रणाली सरकार द्वारा उठाए जा रहे तमाम प्रयासों के बावजूद भी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं है। पश्चिम के किंडेल गार्डन के तर्ज पर भारत में आंगनबाड़ी पद्धति की शुरुआत हुई है। भारत में प्राथमिक स्तर पर शिक्षा कि स्थिति यह है कि 95% से अधिक बच्चे प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश प्राप्त कर लेते हैं। पर यहीं से तस्वीरें बदलनी शुरू होती है। इन बच्चों में से लगभग 40% विद्यार्थियों को ही आगे माध्यमिक विद्यालय (9वीं और 10वीं) में प्रवेश लेने का मौका मिल पाता है। शिक्षा की वार्षिक रिपोर्ट 2019 के अनुसार 5 वर्ष के 70% बच्चे आँगनवाड़ियों या पूर्व-प्राथमिक कक्षाओं में, जबकि 21.6% बच्चे विद्यालय में कक्षा 1 में नामांकित हैं। 6 वर्ष की आयु के 32.8% बच्चे आँगनवाड़ियों या पूर्व-प्राथमिक कक्षाओं में हैं और 46.4% बच्चे कक्षा 1 और 18.7% कक्षा 2 या उससे आगे की कक्षाओं में हैं। अब हम उच्च शिक्षा कि स्थिति पर नज़र डालते हैं तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय (जो इस वक्त शिक्षा मंत्रालय है) के अनुसार वर्तमान में उच्च शिक्षण संस्थानों में लगभग 2 करोड़ से अधिक छात्र पंजीकृत हैं। इसके आगे उच्चतर शिक्षा की स्थिति मानव संसाधन विकास मंत्रालय का ही अखिल भारतीय उच्चतर शिक्षा सर्वेक्षण बताता है कि 18-23 वर्ष के मात्र 25.8 प्रतिशत छात्र ही उच्चतर शिक्षा के लिये पंजीकृत हो पाते हैं।
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की वर्तमान स्थिति भी संतोषजनक नहीं है। हालाँकि शिक्षा की वार्षिक रिपोर्ट,2018 के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक शिक्षा में नामांकन में वृद्धि अवश्य दर्ज की गई है पर प्राथमिक शिक्षा की स्थिति मात्र नामांकन के आधार पर नहीं आंकी जा सकती। हम अगर 11-14 वर्ष की लड़कियों के स्कूल जाने की प्रतिशतता देखें तो वह मात्र 4.1 % है। ये आंकड़े वास्तव में शर्मनाक हैं। हालाँकि कुछ सकारात्मक बदलाव अवश्य देखने को मिले हैं जैसे- 2008 में 8वीं कक्षा में पढ़ने वाले लगभग 85% विद्यार्थी कक्षा 2 की ही किताब पढ़ सकते थे, जबकि 2018 में इनकी संख्या लगभग 73% है। ये आंकड़े सकारात्मक अवश्य हैं पर संतोषजनक नहीं। शिक्षा की पद्धतियों के अलावा अगर हम निजी विद्यालयों को छोड़कर सरकारी विद्यालयों की बात करें तो वहाँ पर स्वच्छता, अनुशासन और अनेक बुनियादी समस्याएं भी मिलती हैं। यहाँ तक की अक्सर अध्यापकों के अंदर भी ज्ञान और गुण दोनों की कमी रहती है जिसकी स्थिति हम आए दिन टेलीविजन पर देखते रहते हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों अगर हम समस्याओं की बात करें तो गरीबी की समस्या सबसे पहले उभरकर सामने आती है। अक्सर रोजगार की कमी के कारण बच्चों को भी अपने माता-पिता के साथ काम करना पड़ता है। दूसरी बात असमानता निजी विद्यालयों में जाने वालों की अपेक्षा जो बच्चे सरकारी विद्यालयों में जाते हैं उनकी शिक्षा की गुणवत्ता बेहद निचले दर्जे की पाई जाती है। जबकि निजी विद्यालयों की तुलना में सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को एक मोटी रकम तनख्वाह के तौर पर दी जाती है। सरकारी विद्यालयों में बेंच,डेस्क जैसी आधारभूत ढांचे की समस्या आज भी व्याप्त है। इस वजह से बच्चे स्कूल में कहीं भी पढ़ते और घूमते नज़र आ सकते हैं। शौचालयों पर जोर दिया गया तो वे अवश्य बनें हैं पर उनमें पानी की दिक्कत और साफ सफाई की दिक्कत है। जो निःशुल्क पुस्तकें बच्चों को दी जाती हैं उनमें नियमितता नहीं देखने को मिलती कई बार पुस्तकें तीन-चार महिने तक की देरी से बच्चों को उपलब्ध कराई जाती हैं। मिड डे मील की पर भी आए दिन सवाल उठते रहते हैं। अच्छे रकम मिलने के बावजूद हमारे सामने अक्सर ऐसी रिपोर्ट आती रहती है जिसमें बच्चों को घटिया किस्म और खराब गुणवत्ता का भोजन उपलब्ध कराया जाता है। इन सबके अलावा आज तकनीकी के युग में कम्प्यूटर गाँवों में अवश्य पहुँचा मगर उसका भी उपयोग सही ढंग से कर पाने में विद्यालय असमर्थ हैं। साथ ही भारत में सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों द्वारा बिना अनुमति के लिए जाने वाले अवकाशों की संख्या आज पूरे विश्व में सबसे अधिक है।
भारत में शिक्षा की गुणवत्ता की एक तस्वीर ऊपर दिए गए आंकड़ों में अप्रत्यक्ष रूप से ज़ाहिर होती है। 2019 के QS वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में केवल 7 भारतीय विश्वविद्यालयों को शीर्ष 400 विश्वविद्यालयों में स्थान प्राप्त हुआ। मार्च 2019 में UGC के अनुसार, कुल स्वीकृत शिक्षण पदों में से 35% प्रोफेसर के पद, 46% एसोसिएट प्रोफेसर के पद और 26% सहायक प्रोफेसर के पद रिक्त हैं। इन पदों पर योग्य शिक्षकों की कमी भी गुणवत्ता को प्रभावित करता है। अगर हम माध्यमिक शिक्षा की बात करें तो शिक्षा के निजीकरण ने शिक्षा के व्यवसायीकरण की तरफ तेजस्वी से रुख़ किया है। इस व्यवसायीकरण ने सरकारी विद्यालयों की शिक्षा में एक बड़ा सेंध लगाने का काम किया है।इन विद्यालयों का ज़ोर दिखावटी शिक्षा पर अधिक केंद्रीय हुआ है न कि विद्यार्थियों में सीखने की प्रक्रिया को बढ़ावा देने पर। इनके पाठ्यक्रमों की व्यवस्था भी सही ढंग से निर्धारित नहीं रहती है। गुणवत्ता की सुधार के लिए सरकार द्वारा निरंतर कदम उठाए जा रहे हैं। नीति आयोग द्वारा राज्य-स्तरीय स्कूल शिक्षा गुणवत्ता सूचकांक बनाया गया है जिसके द्वारा शिक्षा में गुणवत्ता के विकास पर जोर दिया जा रहा है। यह राज्यों की उनकी शिक्षा में गुणवत्ता के आधार पर रैंकिंग प्रदान करता है जिससे की राज्यों में एक सकारात्मक प्रतिस्पर्धा का विकास होता है। साथ ही साथ UGC ने मई 2018 में उच्च शिक्षा के लिये गुणवत्ता अधिदेश की शुरुआत की जिसका लक्ष्य होगा भारत में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारना।
भारत की शिक्षा की पद्धति में शिक्षक, विद्यार्थी, इंफ्रास्ट्रक्चर, अनुभव, अनुदान और गुणवत्ता आदि की कमियां हैं। आज तकनीकी के समय में यह आवश्यक है कि तकनीक के माध्यम से शिक्षा पर जोर दिया जाए। अभी कोरोना के काल में लगातार ऑनलाइन क्लास पर जोर भी दिया गया ओर नकारा भी गया। एक बड़ी असमानता के कारण यह मुमकिन नहीं दिखाई पड़ता। एनसीआरटी द्वारा हाल ही में एक सर्वे कराया गया जिसके आधार पर यह कहा गया कि भारत के लगभग 27% विद्यार्थियों के पास लैपटॉप और मोबाइल नहीं है। शिक्षा की गुणवत्ता में बड़ी समस्या है जिसको हम ऊपर देख चुके हैं। निजी विद्यालयों की प्रतिस्पर्धा में पिछड़ रहे सरकारी विद्यालयों को सुधारने की एक बड़ी ज़रूरत है। सामाजिक और आर्थिक आधार के बीच बनी खांई भारत को शिक्षा के क्षेत्र में पीछे ढकेल रही है। हाल ही में आई नई शिक्षा नीति में शिक्षा में अनुदान को जीडीपी का 6% करने का निर्णय लिया गया है जो स्वागत योग्य अवश्य है पर हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि यह पैसा सही जगह पर खर्च हो।
अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस 2020 “विशेष रूप से शिक्षकों की भूमिका और शिक्षण शिक्षा की भूमिका पर“ साक्षरता शिक्षण और COVID-19 संकट से परे और उससे परे के संकट । मुख्य रूप से युवाओं और वयस्कों पर ध्यान केंद्रित करता है।
8 सितंबर को विश्व साक्षरता दिवस मनाया जाता है। इसका उद्देश्य हर व्यक्ति, समुदाय और समाज को साक्षरता के प्रति जागरूक करना है।
हर क्षेत्र में सुधार की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। नई शिक्षा नीति को काफी हद तक सही ठहराया गया है। पर आवश्यक है इन नीतियों का पालन। साथ ही यह भी देखने योग्य है कि भारत में असमानता बहुत अधिक है अतः इस असमानता का असर भारत के विद्यार्थियों पर न पड़े। जब हम चौथे औद्योगिक क्रांति के क्षेत्र में प्रवेश करने जा रहे हैं तो यह आवश्यक हो जाता है कि अधिकांश युवाओं को तकनीक का ज्ञान हो साथ ही लगभग सभी सरकारी और निजी विद्यालयों में भी तकनीक पर जोर दिया जाए। इसके अलावा मनोवैज्ञानिक रूप से भी विद्यार्थियों को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। आवश्यक है कि शिक्षा पर भारत सरकार द्वारा सम्पूर्ण भारत के स्तर पर बड़े कदम उठाए जाएं ताकि हम एक बेहतर और साक्षर भारत का निर्माण कर सकें।
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