विवाह संस्कार पर विशेष
भार्या त्रीवर्ग करणं शुभ शील युक्ता
शीलं शुभं भवति लग्न वशेन तस्याः।
तस्माद् विवाह समयः परि चिन्त्यते हि
तन्निघ्नता मुपगताः सुत शील धर्माः।।
विवाह संस्कार – यह एकमात्र ऐसा संस्कार है जिसके माध्यम से लोग गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते हैं ।
भारत में विवाह संस्कार की विश्व में अपनी एक अलग ही पहचान है। भारत की सांस्कृतिक सनातन संस्कृत
संस्कार द्वारा पल्लवित पुष्पित व्यक्ति का जब विवाह संस्कार होता है तो वो भी बहुत ही रोचक एवं वैज्ञानिक
आधार पर होता है
वर्णो वश्यं तथा तारा योनिश्च ग्रह्मैत्रकम् ।
गण मैत्रं भकूटं च नाडी चैते गुणाधिका।।
गुणों का मिलान किया जाता है
- वर्ण
- वश्य
- तारा
- योनि
- ग्रह मैत्री
- गण मैत्रं
- भकूटं
इन सबके अंकों को परस्पर योग विशिष्ट ज्योतिषी द्वारा किया जाता है ।
इनके अंक इस प्रकार है।
1+2+3+4+5+6+7 =36 पूर्ण गुणों की संख्याओं का योग 36 होता है।
भगवान श्री सियाराम जी के गुणों का योग 36/36 मिली थी।
वर्तमान समय में कम से कम 18 एवं इससे अधिक गुणों का होना जरूरी होता है ।
18 गुणों से कम गुणों के मिलने पर विवाह नहीं करनी चाहिए
शास्त्रों में गृहस्थ आश्रम सभी आश्रमों का आधार माना गया है। गृहस्थ आश्रम पर आश्रित 3 आश्रम निम्न हैं
⮚ व्रह्मचर्याश्रम
⮚ वानप्रस्थाश्रम
⮚ संन्यास आश्रम
इन आश्रमों में बहुत प्रकार के संस्कार होता है जो गृहस्थ आश्रम पर आश्रित होती हैं
विवाह संस्कार में वचन
वर की प्रतिज्ञाएँ
धमर्पत्नीं मिलित्वैव, ह्येकं जीवनामावयोः।
अद्यारम्भ यतो में त्वम्, अर्द्धांगिनीति घोषिता ॥१॥
आज से धमर्पत्नी को अर्द्धांगिनी घोषित करते हुए, उसके साथ अपने व्यक्तित्व को मिलाकर एक नये जीवन की सृष्टि
करता हूँ। अपने शरीर के अंगों की तरह धमर्पत्नी का ध्यान रखूँगा।
स्वीकरोमि सुखेन त्वां, गृहलक्ष्मीमहन्ततः।
मन्त्रयित्वा विधास्यामि, सुकायार्णि त्वया सह॥२॥
प्रसन्नतापूर्वक गृहलक्ष्मी का महान अधिकार सौंपता हूँ और जीवन के निधार्रण में उनके परामर्श को महत्त्व दूँगा।
रूप-स्वास्थ्य-स्वभावान्तु, गुणदोषादीन् सवर्तः।
रोगाज्ञान-विकारांश्च, तव विस्मृत्य चेतसः॥३॥
रूप, स्वास्थ्य, स्वभावगत गुण दोष एवं अज्ञानजनित विकारों को चित्त में नहीं रखूँगा, उनके कारण असन्तोष व्यक्त नहीं
करूँगा। स्नेहपूर्वक सुधारने या सहन करते हुए आत्मीयता बनाये रखूँगा।
सहचरो भविष्यामि, पूणर्स्नेहः प्रदास्यते।
सत्यता मम निष्ठा च, यस्याधारं भविष्यति॥४॥
पत्नी का मित्र बनकर रहूँगा और पूरा-पूरा स्नेह देता रहूँगा। इस वचन का पालन पूरी निष्ठा और सत्य के आधार पर
करूँगा।
यथा पवित्रचित्तेन, पातिव्रत्य त्वया धृतम्।
तथैव पालयिष्यामि, पतनीव्रतमहं ध्रुवम्॥५॥
पत्नी के लिए जिस प्रकार पतिव्रत की मर्यादा कही गयी है, उसी दृढ़ता से स्वयं पतनीव्रत धर्म का पालन करूँगा। चिन्तन
और आचरण दोनों से ही पर नारी से वासनात्मक सम्बन्ध नहीं जोडूँगा।
समृद्धि-सुख-शान्तीनां, रक्षणाय तथा तव।
व्यवस्थां वै करिष्यामि, स्वशक्तिवैभवादिभि॥६॥
धमर्पत्नी की सुख-शान्ति तथा प्रगति-सुरक्षा की व्यवस्था करने में अपनी शक्ति और साधन आदि को पूरी ईमानदारी से
लगाता रहूँगा।
यतनशीलो भविष्यामि, सन्मागर्ंसेवितुं सदा।
आवयोः मतभेदांश्च, दोषान्संशोध्य शान्तितः॥७॥
अपनी ओर से मधुर भाषण और श्रेष्ठ व्यवहार बनाये रखने का पूरा-पूरा प्रयतन करूँगा। मतभेदों और भूलों का सुधार
शान्ति के साथ करूँगा। किसी के सामने पतनी को लांछित-तिरस्कृत नहीं करूँगा।
भवत्यामसमथार्यां, विमुखायांच कमर्णि।
विश्वासं सहयोगंच, मम प्राप्स्यसि त्वं सदा॥८॥
पत्नी के असमर्थ या अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाने पर भी अपने सहयोग और कर्त्तव्य पालन में रत्ती भर भी
कमी न रखूँगा।
……………..अग्रिम पुष्प जल्द ही प्रकाशित होगा