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धर्मनिरपेक्षता पर निबंध
वर्ष 2020 में अब तक भारत में दो साम्प्रदायिक दंगे हो चुके हैं – दिल्ली और बंगलौर। ऐसे दंगे धर्मों के बीच दूरी कम करने की अपेक्षा और बढ़ा देते हैं। ऐसे में हमें सेक्युलर यानी धर्मनिरपेक्ष या पंथनिरपेक्ष शब्द के वास्तविक मायने को समझना बहुत ज़रूरी हो गया है।
धर्मनिरपेक्षता क्या है
सेक्युलरिज्म या धर्म-निरपेक्षता एक ऐसा सिद्धांत है जो व्यक्ति की आज़ादी के सिद्धांत से उत्पन्न हुआ है। राज्य और धर्म के बीच किसी प्रकार का संबंध न होना ही धर्म-निरपेक्षता की सामान्य परिभाषा स्वीकार की जाती है। इस सिद्धांत को मानने का सभी देश दावा करते हैं पर क्या वास्तव में ये सभी देश धर्म-निरपेक्ष हैं?
क्या विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है? सबसे पहला तो प्रश्न तो यही उठता है कि धर्मनिरपेक्षता क्या है? यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि भारत की धर्मनिरपेक्षता पाश्चात्य देशों में लागू धर्म-निरपेक्षता से अलग है। इसलिए हम यहाँ पर धर्म-निरपेक्षता की दोनों अवधारणाओं को समझने का प्रयास करेंगे और भारतीय समाज में व्याप्त धार्मिक सहिष्णुता की पड़ताल करेंगे।
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पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता
हमें इस अवधारणा को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि इस सिद्धांत की उत्पत्ति क्यों हुई? अगर हम पश्चिमी राष्ट्रों का इतिहास देखें तो हम पाते हैं कि वहाँ राजाओं के साथ-साथ चर्च के पादरियों का बहुत अधिक सम्बन्ध होता था। चर्च में लगातार भ्रष्टाचार हावी होने लगा था। यहाँ तक की वह स्वर्ग का टिकट बेंचने लगा था। अब चूंकि चर्च को राजा का संरक्षण भी प्राप्त था तो उससे बैर भी नहीं रखा जा सकता था।
इस प्रकार चर्च की निरंकुशता के विरोध में धर्म-निरपेक्ष राज्य की अवधारणा का जन्म होता है जहाँ चर्च और राज्य की सत्ता में कोई संबंध नहीं होंगे। इस तरह उन्होंने चर्च और राज्य के बीच संबंध को पूरी तरह समाप्त कर दिया और धर्म अब एक सामाजिक वस्तु या अवधारणा बनकर रह गई। इस तरह पाश्चात्य देशों में धर्म-निरपेक्षता का जन्म हुआ। वहाँ पर राज्य और धर्म के बीच पूरी तरह संबंध विच्छेद है अर्थात न धर्म राज्य के कार्यों में दखल देगा न ही राज्य धर्म के कार्यों में।
धर्म-निरपेक्षता की भारतीय अवधारणा
अब हम अगर पाश्चात्य अवधारणा को यहाँ के सन्दर्भ में देखें तो हम पाते हैं कि यहाँ ऐसा नहीं है कि राज्य धर्म के मामलों में दखल नहीं दे सकता। पर कब दे सकता है यह जानना अहम् है। भारत में राज्य धर्म के मामलों में तभी दखल देगा जब उससे किसी भी नागरिक के अधिकारों का हनन होगा या समाज में वैमनस्यता फैलाई जाएगी।
इस तरह न तो भारत किसी धर्म को संरक्षण देता है और न ही वह किसी धर्म से पूरी तरह मुँह मोड़ लेता है। भारत के धर्म-निरपेक्षता का सिद्धांत यह है कि राज्य सभी धर्मों से समान दूरी पर रहेगा, न किसी के बहुत पास और न बहुत दूर। इससे भारत में न तो धार्मिक संस्थान लोगों के अधिकारों का हनन कर सकते हैं और न राज्य लोगों पर कोई धर्म थोप सकता है। साथ ही यहाँ नागरिक को नास्तिक होने और किसी भी धर्म को न मानने की भी आज़ादी है।
संविधान में धर्म निरपेक्षता
प्रायः लोगों में यह भ्रम रहता है कि इंदिरा गांधी द्वारा किए गए 42वें संविधान संशोधन के द्वारा भारत के संविधान में पंथनिरपेक्ष शब्द जुड़ गया और तभी भारत सेक्युलर हुआ। उससे पहले भारत सेक्यूलर नहीं था। पर वास्तव में ऐसा नहीं था अगर हम पूरानी वाली प्रस्तावना को ही आगे पढ़ें तो लिखा है ‘विश्वास, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता’।
अतः हमारे संविधान में धर्म निरपेक्षता के तत्व पहले से ही निहित थे। यह शब्द जो जोड़ा गया यह महज राजनीतिक स्टंट के अलावा कुछ नहीं है। न केवल प्रस्तावना बल्कि संविधान के मूल अधिकार में भी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता दी गई है। इस तरह हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्षता का तत्व इस 42वें संशोधन से पहले ही विद्यमान था। इसका एक कारण यह भी था कि देश धार्मिक आधार पर हुए बड़े नरसंहार को देख चुका था। इसलिए हमें धार्मिक स्वतंत्रता दी गई। पर ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द इसलिए नहीं जोड़ा गया क्योंकि उस वक्त पूरे विश्व में धर्मनिरपेक्षता का केवल पश्चिमी मॉडल ही प्रसिद्ध था। ऐसे में भारत ने अपने संविधान में अपने समाज के अनुसार धर्मनिरपेक्षता को व्याख्यायित किया।
भारतीय समाज में धर्मनिरपेक्षता
हम भारत के समाज का इतिहास देखें तो हमें इसकी तस्वीर शायद संविधान की प्रस्तावना से कुछ भिन्न मिलती है। यहाँ यह तथ्य सामने ज़रूर आता है कि हम संविधान में लिखकर राज्य को ज़रूर धर्मनिरपेक्ष बना देते हैं पर यह भारत के राजनीतिक सत्ता की विशेषता है। क्या भारतीय समाज आंतरिक रूप से धर्मनिरपेक्ष हो पाया है?
शायद नहीं अगर हम आज भी धर्म के नाम पर मरने और मारने पर उतारू हो जाते हैं तो शायद आंतरिक रूप से सेक्युलर होने में हम विफल हो गए हैं। इसके लिए मात्र राजनीति ही जिम्मेदार नहीं है वरन् विभिन्न धर्मों में बैठे धर्म के ठेकेदार भी जिम्मेदार हैं जो धर्म को अपने अनुसार व्याख्यायित कर रहे हैं। इसलिए भले ही आज हमारे संविधान का चरित्र पंथनिरपेक्ष हो पर समाज का आज भी नहीं हुआ है।
भारतीय समाज की इस स्थिति का कारण क्या हैं ?
इसके कई कारण यह पहला तो यह है कि धर्मनिरपेक्षता की बात वन-वे की जाती है अर्थात एक ही वर्ग को धर्मनिरपेक्ष होने का पाठ पढ़ाया जाता है। आज हम विभिन्न प्रकार के प्रगतिशील सिद्धांत देखें तो वह सिर्फ या अधिकांश एक ही धर्म की आलोचना करते हैं। हाल ही में जस्टिस मार्कंडेय काटजू जब एक धर्म में प्रगतिशीलता की बात करते हुए दिख रहे थे तो लोग उनकी भी आलोचना अपने अनुसार करने लगे।
जबकी दूसरे धर्म की आलोचना पर वही लोग उनके साथ बोलते थे। इतना ही नहीं आज सिर्फ बंगलौर का दंगा सिर्फ इसलिए हो गया कि वहाँ मोहम्मद साहब को डीफेम (बेइज्जत) किया गया। यह करना गलत ज़रूर है पर इसका जवाब दंगा नहीं हो सकता। वास्तव में समाज को यह समझने की ज़रूरत है कि ईश्वर, अल्लाह, गॉड और गुरुनानक आदि का अस्तित्व इतना छोटा नहीं है कि वह किसी इन्सान के कहने मात्र से खराब हो जाएगा। साथ ही भारत के बुद्धिजीवी वर्ग को भी चाहिए की वह बिना भेदभाव के, बिना लॉबी वाली राजनीति के सभी धर्मों के गलत कार्यों के खिलाफ बोलें।
समाधान क्या हो सकता है ?
हमने आजाद भारत में बड़े-बड़े धार्मिक दंगे देखें हैं वह कश्मीर से लेकर गुजरात,अयोध्या, दिल्ली और अब बंगलौर। अतः हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम इस मध्ययुगीन बर्बरता से बाहर आए। इसके लिए हमें धर्म के उन पक्षों पर जोर देने की आवश्यकता है जो नैतिक है। हर धर्म का एक नैतिक पक्ष होता है। गाँधीजी स्वयं एक ऐसे व्यक्ति थे जो धर्म के नैतिक पक्ष पर जोर देते थे। वह अपनी प्रार्थना सभा शायद ही कभी न किए हों।
वह प्रार्थना को अत्यधिक पवित्र मानते थे इसीलिए उन्होंने अपने ऊपर हुए हमले के बावजूद भी प्रार्थना सभा में आने वाले लोगों की जाँच की अनुमति नहीं देते और उनकी हत्या तक प्रार्थना सभा के ही बाद वहीं कर दी जाती है। इतनी अच्छी धार्मिक अभ्यास के बाद भी उन्होंने धार्मिक वैमनस्यता की बात नहीं की न ही उनके चरित्र में दिखा।
हम कबीर का उदाहरण लें तो उन्होंने ने भी मुख्यतः हिन्दू और मुस्लिम धर्म में व्याप्त कुरीतियों पर बराबर रूप से प्रहार किया और सुधार के लिए जागरूक किया। अतः हमें भी उन्हीं लोगों से शिक्षा ग्रहण करनी होगी। जब तक हम धार्मिक मुद्दों पर इतना उलझे रहेंगे हम विकास के रास्ते पर नहीं बढ़ पाएंगे। इसका उदाहरण विश्व के तमाम धार्मिक कट्टर देश हैं जहाँ लगातार गृहयुद्ध चल रहे हैं। अतः भारत के आंतरिक स्वरूप को भी धर्मनिरपेक्ष होना अति आवश्यक है।
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