“हिन्दू धर्म बहुत सहिष्णु हैं जो सभी पन्थो को गले लगता हैं”
—महात्मा गाँधी (यंग इंडिया 24 अप्रैल 1924)
हाल के दिनों में अयोध्या राम मंदिर और प्रधानमंत्री मोदी का उसके भूमि पूजन में जाने का मुद्दा बहुत सुर्खिया बटोर रहा हैं इस घटनाक्रम में सीपीआई (मार्क्सवादी ) ने केंद्र को पत्र लिख कर डी डी न्यूज़ के राम मंदिर के भूमि पूजन के प्रसारण पर रोक लगाने पर बल देते हुए कहा कि “यह भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे के विरुद्ध हैं और इससे समझौता नहीं किया जाना चाहिए” .परन्तु वामपंथी दल की बात न केवल गलत व भ्रामक हैं बल्कि उनके दोहरे और पक्षपातपूर्ण चरित्र को भी उजागर करती हैं। परन्तु अब यह सवाल उठता हैं और इस बात की जाँच आवश्यक हो जाती हैं कि क्या वास्तव में ऐसा करना भारत के धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध हैं और क्या देश की राजनीति और राज्य सदैव संस्कृति से परे रहे हैं ?
क्यों हमारे संविधान निर्माताओ ने मूल संविधान में धर्मनिरपेक्षता शब्द नहीं जोड़ा और क्या वर्तमान घटना भारत के इतिहास में पहली ऐसी घटना हैं ? प्रधानमंत्री के अयोध्या जाने और इससे देश के बहुसांस्कृतिक पहचान पर क्या असर होगा ? और वामपंथी दल एसा क्यों बोल रहा हैं ? क्या वह पूर्वाग्रह मुक्त हैं ? इन सब प्रश्नों का उत्तर केवल ऐतिहासिक विश्लेषण के द्वारा खोजना ही वर्तमान को समझने की कुंजी हैं। इस इतिहास और वर्तमान के सम्बन्ध को प्रसिद्ध इतिहासकार ई.एच.कार अपनी पुस्तक में कुछ इस तरह परिभाषित करते हैं इतिहास भूतकाल और वर्तमानकाल के बीच एक संवाद की प्रक्रिया हैं।
Table of Contents
धर्म निरपेक्ष होने का मतलब यह नहीं हैं की देश अपनी सांस्कृतिक पहचान भुला दे
मैं एक हिंदू हूं, लेकिन सारे धर्मों काआदर करता हूं. कई मौकों पर चर्च, मस्जिद, दरगाह और गुरुद्वारा भी जाता रहता हूं’
-डॉ. राजेंद्र प्रसाद
1947 के के उत्तरार्ध में जब भारत स्वतंत्रता के मुहाने पर खड़ा था और एक स्वंत्रत राष्ट्र बनने ही वाला था तब जंहा एक ओर स्वाधीनता की राजनीतिक प्रक्रिया चल रही थी , वही दूसरी ओर देश में इस अवसर को सांस्कृतिक रूप से भी मानाने की प्रक्रिया भी चल रही थी ,जिसका एक सुन्दर और विस्तृत विवरण लार्री कॉलिंस और डोमिनिक लैपियर ने 1975 में प्रकाशित अपनी पुस्तक “Freedom at Midnight” में दिया हैं।
14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि को भारत अपने ऐतिहासिक जीवन के एक नए युग में प्रवेश करने के मुहाने पर खड़ा था। यह अवसर जैसा कि नेहरु जी ने कहा हैं किसी राष्ट्र के जीवन में सदियों बाद आता हैं। जब बात भारत की आती हैं तो यह बहुत ही ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता हैं क्योकि एक तो भारत अब आधुनिक विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बनाने जा रहा था जंहा बिना किसी भेदभाव के सभी को वयस्क मताधिकार द्वारा अपने प्रतिनिधि चुनने का अवसर मिलने वाला था और दूसरा अब भारत एक ऐसा देश बनाने वाला था जिसका मूल मन्त्र अनेकता में एकता होने वाला था। इन बातो के महत्त्व को आधुनिक भारत के निर्माता अच्छे से समझते थे। अंत इस अवसर का जश्न मानना भी भारत की सांस्कृतिक पहचान को केंद्र में ही रख कर किया गया।
लार्री कॉलिंस और लैपियर जैसा लिखते हैं कि 14 अगस्त 1947 की शाम को यॉर्क रोड (जिससे आज कल तीन मूर्ति रोड कहा जाता हैं ) पर स्थित प्रधानमंत्री निवास (जिससे पहले सैन्य कमांडर निवास के रूप में जाना जाता था ) पर हिन्दू अनुष्ठानों का आयोजन किया गया। पुरोहितो ने जवाहरलाल नेहरु के ऊपर पवित्र जल छिड़का, उनके माथे को पवित्र रख से धोया और अन्य अनुष्ठान किये गए। (पृष्ठ:311)
इसके अलावा ,इसी दिन संविधान सभा के अध्यक्ष और स्वतंत्र भारत के भावी व पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने दिल्ली स्थित अपने निवास पर ब्राहमण पंडितो द्वारा वैदिक रीतियों पर आधारित हवन करवाया। हिन्दू संस्कृति में जिसका अपना एक विशेष महत्त्व होता हैं। इसमें उनके ऊपर पवित्र जल छिड़का गया और ब्राह्मणों ने वैदिक मंत्रो का उच्चारण किया। इसके बाद जैसा कि कॉलिंसऔर लैपियर लिखते हैं “ जैसे ही पुजारी ने अपने मंत्रो का उच्चारण किया ,वे विद्वान पुरुष और महिलाएं जो जल्द ही स्वतंत्र भारत के पहले मंत्री बनने वाले थे , ने पवित्र अग्नि प्रज्वलित की । एक दूसरे ब्राह्मण ने पानी की कुछ बूंदों के साथ प्रत्येक उन लोगो पर छिड़का जो स्वतंत्र भारत के मंत्रीगण होने वाले थे ” यह पूरी कार्यवाही भारत की स्वतंत्रता को चिन्हित करने वाले हॉल में प्रवेश करने से कुछ मिनट पहले हुआ। (पृष्ठ: 315)
इन सांस्कृतिक रीतियों का पालन ना केवल नए भारत के राजनीतिक मंत्रियो और शासनाध्यक्षो के राज्याभिषेक में किया गया बल्कि इसका पालन उस महान तिथि के निर्धारण में भी किया गया जब भारत अपने राष्ट्र जीवन के एक युग से दूसरे युग में प्रवेश करने वाला था। कॉलिंसऔरलैपियर लिखते हैं कि जब भारत की स्वतंत्रता की तिथि और समय पर बहस हुयी तब उसके निर्धारण में ज्योतिष शास्त्र और ज्योतिष शास्त्रियों की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही।
कुछ खगोलशास्त्रियो का मानना था कि 15 अगस्त की सुबह “शनि” और “राहु” की खगोलीय स्थिति के कारण अशुभ हैं ! (पृष्ठ. 217) इस बात का विवरण तब के शिकागो डेली के दक्षिण एशिया के संवादाता फिलिपडेलीबोट इस प्रकार देते हैं कि “ज्योतिष शास्त्रियों ने पता लगाया हैं कि 15 अगस्त की सुबह सत्ता का हस्तांतरण अशुभ हैं और इस कारण कांग्रेस नेताओ ने ,जो इस बात से वाकिफ थे , ने यह निर्णय लिया कि मध्यरात्रि को 12 बजे भारत अंग्रेजो के अपनी सत्ता को हस्तांतरण करेगा।
यह बातें दिखाती हैं कि भारत की स्वतंत्रता के अवसर पर देश ने अपने नए राजनीतिक युग की शुरुआत सांस्कृतिक तरीको से की। जिसको किसी ने भी “तथा- कथित धर्मनिरपेक्षता”(मूल संविधान में यह शब्द नहीं था इसको बाद में 42वे संविधान संशोधन द्वारा 1975 में जोड़ा गया, यहाँ इसका इस्तेमाल केवल विचारधारा के सन्दर्भ में किया गया हैं ) के ढ़ाचे के खिलाफ नहीं माना और देखा। अगर हम इसको जॉर्ज होलायके के विचारों के सन्दर्भ में भी देखे तो तस्वीर अलग ही नज़र आती हैं।
इस सन्दर्भ में दूसरी सबसे महत्वपूर्ण घटना आजादी के कुछ सालो बाद की हैं। 1947 में स्वतंत्र भारत के पहले गृह मंत्री और उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल जब अपने गृह राज्य गुजरात गए तब उन्होंने सोमनाथ मंदिर के खंडरो की यात्रा की और तब इसके जीर्णोधार करने का निश्चय किया। जैसा कि मैरी क्रूज़ गेब्रियल लिखती हैं कि सरदार पटेल और के एम मुंशी (जो संविधान सभा और इसकी प्रस्तावना समिति के महत्वपूर्ण सदस्य थे) अपना इस प्रस्ताव लेकर गाँधी जी के पास गए और तब गाँधी जी ने इनको आशीर्वाद देते हुए जीर्णोधार का काम आगे बढ़ने को कहा और उन्होंने इसके साथ ही एक बात और कहीं कि उन्हें इस बात पर गर्व हैं कि वो मंदिर के नवीनीकरण की योजना से जुड़े हैं।
इसके बाद सरदार पटेल ने इसकी जिम्मेदारी अपने सहयोगी के एम मुंशी को सौपी! 1951 में जब मंदिर बन कर तैयार हुआ तब तक सरदार पटेल का देहांत हो चुका था अंततः मुंशी जी ने इसके उद्घाटन के लिए भारत के राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को आमंत्रण भेजा। परन्तु जवाहरलाल नेहरु को लगता था कि राज्य के एक प्रमुख द्वारा मंदिर का उद्घाटन नव निर्मित भारत के बहुलवादी और बहुसांस्कृतिक पहचान के लिए हानिकारक होगा खासकर उस देश के लिए जो अभी अभी स्वत्रन्त्र हुआ हैं और जिसका सिद्धांत अनेक में एकता हैं। इस दौरान इस बात को लेकर डॉ राजेंद्र प्रसाद और प्रधानमंत्री नेहरु के बीच हुए पत्रों से संवाद हुआ जिसका सुन्दरता से वर्णन करते हुए इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में किया।
वह लिखते हैं कि नेहरू ने प्रसाद को सलाह दी ”वे सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह में शामिल न हो , इसके दुर्भाग्यवश कई मतलब निकाले जाएंगे” ! परन्तु राजेंद्र प्रसाद नेहरु की बातो में कोई तर्क नहीं देखते थे अंततः मई 1951 में जब वो मंदिर के उद्घाटन के लिए गए तब उन्होंने इस बात को कहा कि मैं एक हिंदू हूं, लेकिन सारे धर्मों का आदर करता हूं. कई मौकों पर चर्च, मस्जिद, दरगाह और गुरुद्वारा भी जाता रहता हूं’ . उनके विचारों में स्पष्ट रूप से गाँधी जी के विचारो का प्रतिबिम्ब था। जो हिन्दू धर्म की एक विस्तृत परिभाषा देते हुए एक राम राज्य की कल्पना करते थे और अपनी प्रार्थना सभाओ और विचारों में विभिन्न धर्मो के सिद्धांतो और बातों को अपनाते थे।
इसी से प्रेरणा लेते हुए अगर आज प्रधानमंत्री मोदी अयोध्या जा रहे हैं तो उनको वहां से देश के अल्पसंख्यक वर्ग और समाज के अन्य तबको को संबोधित करना चाहिए और उनको यह विश्वास दिलाना चाहिए कि वो और उनकी पार्टी हिन्दू लोगो के साथ साथ अन्य लोगो का, उनके विश्वास का सम्मान करती हैं जिसका कुछ सालो में आभाव दिखा हैं और जिसका बीजेपी की हिंदुत्व राजनीती में भी कोई स्थान नहीं दिखता। उनको गाँधी के मार्ग को अपनाना चाहिए जिन्होंने हिन्दू होते हुए सभी धर्मो का सम्मान किया और हिन्दू धर्म की एक महान और विस्तृत व्याख्या की। जिसके आगे सावरकार की हिंदुत्व विचारधारा कही नहीं ठहरती।
धर्मनिरपेक्षनहींबल्किधर्मधार्मिकसहिष्णुता सांप्रदायिक सद्भावना “सर्व धर्मं संभव”
एक अन्य प्रश्न जिसके उत्तर शेष रह गया हैं कि क्यों हमारे मूल संविधान में धर्मनिरपेक्षता शब्द को नहीं जोड़ा गया था ? इस प्रश्न का उत्तर दो प्रश्नों के आलोक में ही खोजा जा सकता हैं क्या आज जिस धर्मनिरपेक्षता को बाद में जोड़ा गया और जिसकी आज कल बात होती हैं क्या वो पश्चिमी राजनीति संस्कृति की उपज हैं और क्या भारत के पास स्वयं की कोई ऐसी ऐतिहासिक राजनीतिक विचारधारा नहीं रही हैं ? अगर इसका जवाब हाँ हैं तो इसको इस तरह देखना गलत भी होगा क्योकि कही न कही ऐसा मानकर हम यह भी स्वीकार कर लेते हैं कि भारत में पहले से ही सांप्रदायिक पहचाने हावी रही हैं जो राजनीति को सदैव नकारात्मक रूप से प्रभावित करती रही है।
परन्तु ऐसा कुछ नहीं है। 1950 में संविधान को लागू हुए भारत के संविधान में “धर्मनिरपेक्षता” नाम का कोई शब्द नहीं थे । जिसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह रहा होगा कि संविधान निर्माताओ ने धर्मनिरपेक्षता से ज्यादा धार्मिक सहिष्णुता और सांप्रदायिक सद्भावना (या सर्व धर्म संभव ) की विचार को मान्यता दी जो कि भारत के ऐतिहासिक विकास का महत्वपूर्ण अंग रहा हैं जिसको सम्राट अशोक, अकबर और कश्मीरी शासक जैन उल आबदीन जैसे ऐतिहासिक व्यक्तित्वों ने सदूर इतिहास आधार प्रदान किया।
परन्तु इन सब में सबसे महत्वपूर्ण और तत्कालीन प्रभाव गाँधी जी का रहा जिन्होंने हिन्दू धर्म ( यह हिंदुत्व से अलग हैं जोकि एक सांस्कृतिक से ज्यादा राजनीतिक विचारधारा हैं ) की सुन्दर और विस्तृत परिभाषा देते हुए यंग इंडिया में 24 अप्रैल 1924 और अपनी पुस्तक “हिन्दू धर्म क्या हैं “ में लिखा कि हिन्दू धर्म बहुत सहिष्णु हैं जो सभी पन्थो को गले लगता हैं ! गाँधी का यह विचार तत्कालीन साम्प्रदायिक वादियों (communalist) से पूरी तरह भिन्न था ! और संभवता यही विचार संविधान सभा ने भी कही न कही माना ! उन्होंने कही न कही राज्य को धर्मं सहिष्णु बनाने का प्रयास किया होगा न कि धर्मनिरपेक्ष जिसकी बात आज वामपंथी कर कर रहे हैं !
इस विचार को अपनाते हुए इस बात का भी पूरा ख्याल रखा की देश की सरकार अन्य धर्मो को पूर्ण स्वतंत्रता और फलने फूलने का पूरा मौका दे। भारत के पहले पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने भी इस बात को समझा और इसलिए उनके शासनकाल और राजनीतिक काल में देश में सांस्कृतिक और भाषाई प्लुरालिस्म को बढ़ावा दिया गया जिसका बीजेपी की राजनीति और राजनीतिक विचारधारा में पूरी तरह आभाव हैं तथा उनका एजेंडा ही देश को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना हैं जोकि इस बहु सांस्कृतिक विविधता के लिए हानिकारक हैं। देश के प्रधानमंत्री होने के नाते यह प्रधानमंत्री मोदी की जिम्मेदारी हैं कि वो लोगो के मन में विश्वास जगाये ,उनके भय को दूर करे (जिसको वामपंथी मानते हैं ) और इसके द्वारा उनको अपनी पार्टी की एक गलत (नेगेटिव) ऐतिहासिक छवि साफ़ करने का प्रयास करना चाहिए।
जहां तक वामपंथी विरोध का प्रश्न हैं तो यह विरोध भी कही न कही पक्षपातपूर्ण हैं और राजनीतिक भावना और फ़ायदे से प्रेरित हैं। जिन्होंने सदैव राम मंदिर का विरोध किया और सदैव बाबरी मस्जिद के पक्ष में रहे। अगर यह यह लोग पक्षपात से, राजनीति या पूर्वाग्रहों से प्रेरित नहीं हैं तो क्यों इन्होने अपने को इस मुद्दे में डाला और क्यों बाबरी मस्जिद का समर्थन किया। जैसा कि अरुण शिरॉय लिखते हैं कि कही न कही बाबरी मस्जिद के पक्ष में वामपंथी इतिहासकारों का पक्षकार होना या उतरना दिखता हैं कि इनकी सोच और विचार क्या थे ,यह लोग यहाँ तक कि सच्चे पक्षपातहीन इतिहासकार भी नहीं थे। इस बात का एक प्रमाण कुछ दिनों पूर्व की एक घटना में देखा जा सकता हैं जब एक वामपंथी नेता ने राम मंदिर अवशेषों को को बौद्ध स्तूप बताने (यह खबर पुरानी थी जो पहले ही खंडित हो चुकी हैं )का प्रयास कर के फिर से देश को गुमराह करने का प्रयास किया। परन्तु बाद में उनको अपने इस कृत्य के लिए लोगो से माफ़ी भी मांगनी पड़ी।
राजनीतिक हितो के लिए संस्कृति के गलत इस्तेमाल को रोका जाये
2016 में प्रकशित किताब “What the nation really need to know: JNU Nationalism lectures” में संकलित एक लेख में जैसा गोपाल गुरु लिखे हैं कि जब-जब दक्षिणपंथी राजनीति कमजोर पड़ती हैं तब तब वो राष्ट्रवाद भावना (खासकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद) को इतना हवा देती हैं कि उसकी राजनीतिक स्थिति पूर्ण मजबूत और सुरक्षित हो जाये।ताकि अन्य जनता के सरोकार वाले मुद्दों को दबाया जा सके।
(गोपाल गुरु जहां दक्षिणपंथी राजनीती की बात कर रहे हैं वह उन्होंने वामपंथी राजनीती की ऐसी हरकातो को भुला दिया और जहां तक राष्ट्रवाद की बात हैं तो यही काम वामपंथियों के नेता स्टालिन ने भी दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत में पराजय के बाद किया जब चर्च को राष्ट्रवाद को बढ़ने का केंद्र बना कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया ) परन्तु आज आम लोगो का यह संवैधानिक फर्ज हैं कि वो संस्कृति को राजनीति के लिए इस्तेमाल न होने दे और राम मंदिर की आड़ में बीजेपी द्वारा बढती बेरोजगारी (जो लॉक डाउन के कारण अपने सबसे ऊँचे स्तर पर हैं और देश में पिछले 5 सालो से कोई भी ज्यादा नौकरिया नहीं आई ), अर्थ व्यवस्था की दुर्गति , महंगाई और निजीकरण (बीजेपी सरकार में अनेक सार्वजनिक सम्पतियो को लगातार बेचा जा रहा हैं और देश में नव उदारवाद लगातार बढ़ता जा रहा हैं ) को दबाने के प्रयास को रोके और इसके ऊपर भी उनसे सवाल करे। जिसको बिकी हुई मीडिया लगातार दबाने का प्रयास कर रहा हैं और अन्य मुद्दों की आड़ में इन जनता से जुद्दे प्रमुख मुद्दों को लगातार दबाने का प्रयास कर रहा हैं।
जिसके लिए रोज शाम को देश के कोई भी चार फालतू लोगो को फालतू डिबेट शो में बुलाकार जनता को गुमराह कर रहे हैं।अगर अन्य अर्थो में कहे तो राजनीतिक हितो के लिए संस्कृति के गलत इस्तेमाल को रोका जाये। राम मंदिर के प्रमुख मुद्दा हैं जिसके लिए हर्ष मानना चाहिए। जिसको टी वी पर प्रसारण करना चाहिए परन्तु इसकी आड़ लेकार अन्य मुद्दों को दबाना जनता की पीठ में छुरा घोपना है और देश के लोकतंत्र की हत्या करने के बराबर हैं। आज हमारी संस्कृति को नेताओ का हथिया बनने से रोकना होगा।
“No one can be a true nationalist who is incapable of feeling ashamed of her [or his] state or government commits crimes, including those against their fellow citizens”.
–Benedict Anderson
#सम्बंधित:- आर्टिकल्स
- अयोध्या राम मंदिर
- रक्षाबन्धन का त्योहार
- महाकालेश्वर मंदिर
- गायत्री जयंती
- सुरलीन कौर और इस्कॉन विवाद
- चाणक्य नीति
- हरिद्वार कुंभ मेला
- भारतीय संस्कृति
- वंदनीय माँ
- डिप्रेशन भगवत गीता एक उपाए
- काशी-मथुरा मंदिर विवाद
- नई शिक्षा नीति
- मित्रता दिवस
- अमरनाथ यात्रा का महत्व,इतिहास एवं रहस्य
- सिंधु घाटी सभ्यता का इतिहास